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जैनधर्म अथवा बौद्धधर्म भारतीय विचारधारा एवं सभ्यता की शत-प्रतिशत उपज है, तथापि उनमें से कोई भी हिन्दू नहीं है। अतएव भारतीयसंस्कृति को हिन्दूसंस्कृति कहना भ्रामक है। '
ऐतिहासिक दृष्टि से भी, वेदों तथा वैदिकसाहित्य में वेदविरोधी व्रत्यों या श्रमणों को वेदानुयायियों - ब्राह्मणों आदि से पृथक् सूचित किया है। अशोक के शिलालेखों (3री शती ई.पू.) में भी श्रमणों और ब्राह्मणों का सुस्पष्ट पृथक् पृथक् उल्लेख है। यूनानी लेखकों ने भी ऐसा ही उल्लेख किया और खारवेल के शिलालेख में भी ऐसा ही किया गया । 2री शती ई. में ब्राह्मणधर्म पू. पुनरुद्धार के नेता पतञ्जलि ने भी महाभाष्य में श्रमणों एवं ब्राह्मणों को दो स्वतंत्र प्रतिस्पर्द्धाओं एवं विरोधी समुदायों के रूप में कथन किया। महाभारत, रामायण, ब्राह्मणीय पुराणों, स्मृतियों आदि से भी यह पार्थक्य स्पष्ट है। ईस्वी सन् के प्रथम सहस्राब्द में स्वयं भारतीयजनों में इस विषय पर कभी कोई शंका, भ्रम या विवाद ही नहीं हुआ कि जैन एवं ब्राह्मणधर्मी एक हैं- यही लोकविश्वास था कि स्मरणातीत प्राचीन काल से दोनों परम्पराएँ एकदूसरे से स्वतंत्र चली आई हैं। मुसलमानों ने इस देश के निवासियों को जातीय दृष्टि से सामान्यतः हिन्दू कहा, किन्तु शीघ्र ही यह शब्द शैव-वैष्णवादि ब्राह्मणधर्मियों के लिए ही प्रायः प्रयुक्त करने लगे क्योंकि उन्होंने यह भी निश्चय कर लिया था कि उनके अतिरिक्त यहाँ एक तो जैन परम्परा है जिसके अनुयायी अपेक्षाकृत अल्पसंख्यक हैं तथा अनेक बातों में बाह्यतः उक्त हिन्दुओं के ही सदृश भी हैं, वह एक भिन्न एवं स्वतंत्र परम्परा है। मुगलकाल में अकबर के समय से ही यह तथ्य सुस्पष्ट रूप से मान्य भी हुआ। अंग्रेजों ने भी प्रारंभ में, मुसलमानों के अनुकरण से, सभी मुसलमानेतर भारतीयों को हिन्दू समझा किन्तु शीघ्र ही उन्होंने भी कथित हिन्दुओं और जैनों की एक-दूसरे से स्वतंत्र संज्ञाएँ स्वीकार कर लीं। सन् 1831 से ब्रिटिश शासन में भारतीयों की जनगणना लेने का क्रम भी चालू हुआ, सन् 1831 से तो वह दशाब्दी जनगणना क्रम सुव्यवस्थित रूप से चालू हो गया । इन गणनाओं में 1831 से 1941 तक बराबर हिन्दुओं और जैनियों की संख्याएँ पृथक् पृथक् सूचित की गई। 15 अगस्त 1947 को हमारा देश स्वतन्त्र हुआ और सार्वजनिक नेताओं के नेतृत्व में यहाँ स्वतन्त्र सर्वतन्त्र प्रजातन्त्र की स्थापना हुई। किन्तु 1948 में जो जनगणना अधिनियम पास किया गया उसमें यह नियम रक्खा गया कि जैनों को हिन्दुओं के अन्तर्गत ही परिगणित किया जाय- एक स्वतन्त्र समुदाय के रूप में पृथक् नहीं। इस पर जैनसमाज में बड़ी हलचल मची। स्व. 14 अक्टूबर 2007 जिनभाषित
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आचार्य शान्तिसागरजी ने कानून के विरोध में आमरण अनशन ठान दिया, जैनों के अधिकारियों को स्मृतिपत्र दिए, उनके पास डेपुटेशन भेजे। फलस्वरूप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य केन्द्रीय मन्त्रियों ने जैनों को आश्वासन दिये कि उनकी उचित मांग के साथ न्याय किया जाएगा।
जैनों की मांग थी कि उन्हें सदैव की भांति 1951 की तथा उसके पश्चात् होनेवाली जनगणनाओं में एक स्वतन्त्र धार्मिक समाज के रूप में उसकी पृथक् जनसंख्या के साथ परिगणित किया जाय। उनका यह भी कहना था कि वे अपनी इस मांग को वापस लेने के लिए तैयार हैं यदि जनगणना में किसी अन्य सम्प्रदाय या समुदाय की भी पृथक् गणना न की जाय और समस्त नागरिकों को मात्र भारतीय रूप में परिगणित किया जाय। (देखिए, हिन्दुस्थान टाइम्स 6-2-50) I
जैनों का डेपुटेशन अधिकारियों से 5 जनवरी 1950 को मिला। डेपुटेशन के नेता एस. जी. पाटिल थे। इस अवसर पर दिये गये स्मृति - पत्र में हरिजनमंदिर- प्रवेश अधिनियम तथा बम्बई बैगर्स एक्ट को भी जैनों पर न लागू करने की माँग की। अधिकारियों ने जैनों की मांग पर विचार-विमर्श किया और अन्त में भारत के प्रधानमंत्री नेहरूजी ने यह आश्वासन दिया कि भारतसरकार जैनों को एक स्वतन्त्रपृथक् धार्मिक समुदाय मानती है और उन्हें यह भय करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि वे हिन्दूसमाज के अङ्ग मान लिए जाएँगे यद्यपि वे और हिन्दू अनेक बातों में एक रहे हैं । (हि. टा. 2-2-50) प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव श्री ए. के. श्री एस. जी. पाटिल के नाम लिखे गये 31-1-50 के पत्र में जैन बनाम हिन्दू सम्बन्धी सरकार की नीति एवं वैधानिक स्थिति सुस्पष्ट कर दी गई है। शिक्षामंत्री मौलाना अबुलकलाम आजाद ने भी श्री पाटिल को लिखे गये अपने पत्र में उक्त आश्वासन की पुष्टि की और आशा व्यक्त की कि आचार्य शान्तिसागर जी अब अपना अनशन त्याग देंगे। यह भी लिखा कि अपनी स्पष्ट इच्छाओं के विरुद्ध कोई भी समूह किसी अन्य समुदाय में सम्मिलित नहीं किया जाएगा। (वही, 6-2-50) लोकसभा में उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बलवन्तसिंह मेहता के प्रश्न के उत्तर में सूचित किया कि जनगणना में धर्म शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दू और जैन पृथक्-पृथक् परिगणित किये जाएंगे (वही, 6-2-50)।
इसी बीच स्व. ला. तनसुखराय ने अखिल भारतीय जैन एसोशिएसन के मंत्री के रूप उपरोक्त मेमोरेण्डम के औचित्य पर आपत्ति की (वही, 4-2-50) और अपने वक्तव्य में उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शब्द हिन्दू जातीयता
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