Book Title: Jinabhashita 2007 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 9
________________ = 1 करोड 60 लाख अर्थात् भरत, ऐरावत सम्बन्धी ढाईद्वीप में दसक्षेत्रों में औसतन सम्यग्दृष्टियों का प्रमाण 1 करोड़ 60 लाख आता है तो एक भरतक्षेत्र सम्बन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यों का प्रमाण 16 लाख रह जाता है। यह स्थूल प्रक्रिया जानना । यह प्रमाण सम्पूर्ण भरतक्षेत्र का है। जिसमें विद्याधर की श्रेणियों में रहनेवाले सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी शामिल हैं। वर्तमान विश्व में इतनी जनसंख्या भले ही दृष्टिगोचर हो पर हमें ध्यान रखना है कि विद्याधर की श्रेणियों में भी इन्हीं 16 लाख मनुष्यों का विभाजन होगा। मोटे तौर से यह सिद्धान्त के आंकड़े हैं, जो यहाँ प्रस्तुत हैं क्योंकि श्रेणी में कितने मनुष्य हैं और यहाँ कितने मनुष्य रहते हैं इस प्रकार के विभाजनवाला कोई अल्पबहुत्व हमें प्राप्त नहीं हुआ है। वर्तमान में जो भारत या विश्व हमें जानने में आ रहा है, वह तो सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के कई खण्डों के एक खण्ड का भी बहुत छोटा सा अंश है, यह बात भरतक्षेत्र का विस्तार देखने से ज्ञात हो जाती है। अतः जितना विश्व हमें ज्ञात है उतने में ही हम इस संख्या को न मानें किन्तु भरतक्षेत्र का जो क्षेत्रफल प्रतरांगुलों में आता है उतने प्रमाणक्षेत्र में इतने सम्यग्दृष्टियों को जानना चाहिये । यदि हम ऐसा नहीं मानते हैं तो भरत, ऐरावतक्षेत्र की अपेक्षा संख्यातगुणे मनुष्य विदेहक्षेत्र में हैं, यह कथन विरोध को प्राप्त हो जायेगा। सात सौ करोड़ सम्यग्दृष्टि मनुष्यों में, विदेह में बहुभाग प्रमाण सम्यग्दृष्टि हैं यह भी इसी गणितीय आकलन से निकल आता है। वह इस प्रकार है- विदेह में सम्यग्द्र० की संख्या = 7×10×1024 अ = 6 अरब 80 करोड़ 1055 अ श्रीमान् तर्करत्न पं. माणिकचन्द्र जी कौन्देय न्यायाचार्य ने 'सम्यग्दर्शन की दुर्लभता' नाम एक लेख लिखा है। उसमें भी पं. जी ने यह तर्क उपस्थित किया है कि 29 अङ्क प्रमाण सम्पूर्ण पर्याप्त मनुष्यों में यदि सभी सम्यग्दृष्टि जीव जो कि 721 करोड़ के लगभग गोम्मटसार में दी गई गाथा 631-632 के अनुसार आते हैं तो एक शंख मनुष्यों में केवल एक मनुष्य सम्यग्दृष्टि गणना में आता है, तब आजकल के तेरह लाख जैनों में तो शायद ही कोई सम्यग्दृष्टि हो ? पं. जी का यह गणित युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि मात्र 13 लाख जैनों में ही हमें सम्यग्दृष्टि नहीं ढूँढना है अपितु पूरे क्षेत्र की संख्या में सम्यग्दृष्टियों का जो अनुपात आता है उसका विभाजन करना है। पूरे भरतखण्ड की संख्या तो एक नहीं कई शंखों में होगी क्योंकि इस भरत क्षेत्र में पाँच तो म्लेच्छखण्ड हैं और दो विजयार्ध की श्रेणियाँ हैं इनमें भी मनुष्य रहते हैं। इन मनुष्यों में जो म्लेच्छखण्ड के मनुष्य हैं वे तो नियम से मिथ्यादृष्टि ही होते हैं अतः हमें विजयार्ध और आर्यखण्ड के मनुष्यों को मिलाकर सम्यग्दृष्टि बाँटने होंगे। इसमें भी वर्तमान वैज्ञानिकों का बताया हुआ जगत्, यूरोप, एशिया, अमेरिका, अफ्रीका ऑस्ट्रेलिया, चीन तथा और भी अन्य छोटे देश अथवा समुद्रीय जलभाग से घिरा हुआ भूमण्डल है इसमें सब मिलाकर कई अरब मनुष्य हैं। पर हम इनमें भी उन 721 करोड़ सम्यग्दृष्टियों का बँटवारा नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह सब अयोग्य क्षेत्र है। अतः हमें सम्यग्दृष्टियों की संख्या एक सीमित निश्चित भू-भाग पर ही देखनी होगी। सम्पूर्ण मनुष्यों की संख्या में सम्यग्दृष्टियों को क्यों बाँटें जबकि यहाँ एक बात फिर से ध्यातव्य है कि यदि भरत हमें मालूम है कि इन म्लेच्छ आदि खण्डों में सम्यग्दृष्टि क्षेत्र में सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संख्या 3-4 मानेंगे तो उपर्युक्त होते नहीं, और हो नहीं सकते । पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार 1. अल्पबहुत्व के अनुसार हैमवत, हैरण्यवत में संख्यातगुणा न तो विभाजन किया है, और न इस प्रकार विभाजन करने कम कैसे करेंगे और यदि इसके ऊपर भी संख्यातगुणा के लिये कहा है । गुणक्ता को धारण करनेवाली वस्तु किसी कम करेंगे तो हरि, रम्यक में तो अनुपात नगण्य हो जायेगा। निश्चित क्षेत्र में ही पर्याप्त मात्रा में मिलती है। उदाहरण अतः यह अवधारणा सुतरां गलत सिद्ध होती है कि यहाँ के लिये यदि भारत की करोड़ हेक्टेयर भूमि के किसी सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संख्या 3-4 होती है। यह विवेचन । एक निश्चित भू-भाग में होनेवाले किसी खनिज पदार्थ को | अक्टूबर 2007 जिनभाषित 7 यह पांच विदेहों सम्बन्धी सम्यग्द्र० की संख्या है। अत: 700 करोड़ (7 अरब) सम्यग्दृष्टियों का यह अनुपात ठीक निकल आता है। इसीप्रकार अन्तद्वप, उत्तरकुरु आदि भोगभूमियों में प्रमाण निकाल लेना चाहिए । करणानुयोग के अनुसार है। इसी प्रकार देशसंयत आदि के लिये जो पृथक्-पृथक् संख्या उपलब्ध है उसको भी इसी अल्पबहुत्व से निकालेंगे तो प्रत्येक गुणस्थानवालों की भिन्न-भिन्न संख्या में अनुपात निकल आयेगा । इतना विशेष है कि देशसंयत आदि का पृथक्रूप से अनुपात लाने के लिये भोगभूमि सम्बन्धी अल्पबहुत्व के आकलन को छोड़ देना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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