Book Title: Jinabhashita 2003 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ तुलना करने पर तो मानना ही पड़ेगा कि सचित्त द्रव्यों की तुलना में अचित्त द्रव्यों के प्रयोग में कम हिंसा होती है और 'सावध लेशो' के सिद्धान्त के अनुसार अचित्त द्रव्य से पूजा श्रेष्ठ सिद्ध होती है। अहिंसा की पालना में आगे बढ़ते हुए श्रावक सचित्त पदार्थों के प्रयोग का त्याग कर देता है। दूसरी प्रतिमा में भी अतिथि संविभाग व्रत व भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचारों में सचित्त संबंध, सचित सम्मिश्र, सचित्त निक्षेप व सचित्तापिधान को बताया गया है। पूजा और पूजा के द्रव्यों के बारे में लम्बी चर्चा की जा सकती है, किंतु अभी इस लेख में, मैं तो केवल यह कहना चाहता हूँ कि क्या हम धार्मिक विषयों पर आगम, तर्क और अनुमान के आधार पर बिना व्यक्तिगत आक्षेपों के केवल विषय प्रतिपादन के अभ्यासी नहीं बन सकते? जैन धर्म अनेकांत सिद्धांत के आधार पर हमें विशेषतौर पर विचार सहिष्णु, विनयशील एवं मृदुभाषी होना सिखाता है। विचार भिन्नता संभव है, किंतु उसके आधार पर मन में द्वेष भावना उत्पन्न कर विरोधी विचार वालों के प्रति अपनी भाषा को विकृत कर अपशब्दों का प्रयोग सर्वथा अनुचित है। दिगम्बर जैन समाज की प्रमुख प्रतिनिधि संस्था दि. जैन महासभा के मुख पत्र जैन जगट में ऐसा एक मूर्धन्य विद्वान के प्रति व्यक्तिगत निंदात्मक लेख छापा जाना खेदजनक है। विषय के पक्ष विपक्ष में शालीन भाषा में खोज परक लेख पत्रिका की शोभा बढ़ाते हैं, किंतु ऐसे निंदात्मक लेखों से न केवल पत्रिका किंतु संस्था की भी छवि धूमिल होती है। विशेष बात तो यह है कि उक्त लेख जैन गजट को लेखक के द्वारा नहीं भेजा गया है। अपितु जैन गजट ने "आदित्य संदेश" पत्रिका से साभार उद्धृत कर छापा है। दूसरी पत्रिका से लेकर लेख छापने से स्पष्ट सिद्ध होता है कि जैन गजट परिवार ने उस लेख को महत्वपूर्ण और संस्था की रीति-नीति के अनुकूल समझकर विशेष रूचि लेकर छापा है। तथापि मेरा विश्वास है कि जैन गजट के सुधी संपादक जी की दृष्टि में लाए बिना यह लेख छापा गया होगा। मेरा तो सभी जैन पत्र पत्रिकाओं के संपादकों से यह आग्रह पूर्वक निवेदन है कि वे सम्पादकीय नैतिक एवं व्यावहारिक उत्तरदायित्वों को ध्यान में रखते हुए किसी भी विद्वान लेखक अथवा साधुओं की आलोचना में निंदात्मक हल्के शब्दों के प्रयोग वाले लेखों का, जो पूरे समाज की छवि को धूमिल करे, अपनी पत्र-पत्रिकाओं में स्थान नहीं देवें एवं पारस्परिक शालीन व्यवहार को प्रोत्साहित करें। मूलचन्द लुहाड़िया पाठकों के सुझावों पर टिप्पणी कुछ सुधी पाठकों ने दिगम्बर प्रतिमा की पहिचान विषयक लेख, प्रति लेखों को व्यक्तिगत सलाह, टीका टिप्पणी मानते हुए पत्रिका में प्रकाशित किया जाना उचित नहीं माना है। इस संबंध में निवेदन है कि लेखों में कोई व्यक्तिगत विषयों की चर्चा नहीं की गई है। दिगम्बर प्रतिमा के स्वरूप संबंधी लेख सम्यग्दर्शन के कारण सच्चे देव के स्वरूप से संबंध रखता है तथा दिगम्बर जैन संस्कृति के संरक्षण की प्रेरणा देता है। अत: अपनी श्रद्धा की दृढ़ता एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए जिन प्रतिमा के स्वरूप की जानकारी, भगवान् जिनेन्द्र के स्वरूप की जानकारी के समान ही अत्यंत उपयोगी, प्रयोजनभूत तथा महत्वपूर्ण है । यह ठीक है कि लेखों में किसी के मत की समीक्षा करते समय शालीन, शिष्ट और विनय पूर्ण भाषा का प्रयोग होना चाहिए। किसी भी स्थिति में निदांत्मक शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। संपादक + अगस्त 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40