Book Title: Jinabhashita 2003 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ स्वाभाविकता की सहज अनुभूति होने लगती है। कि उनके अक्षर-अक्षर में शब्दत्व की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। 5. इस धरित्री के वे 'संत' महान् हैं जो अपनी रचना | उन्होंने शब्दों को नये अर्थ, नये परिवेश के रंग-विरंगे परिधान धर्मिता के द्वारा इस सांसारिक जगत् के समस्त संतापों से मुक्त | पहनाये हैं। इसलिए उन्हें 'शब्दों का जादूगर' कहा गया है। मूकमाटी करने के लिए भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। इस दृष्टि से 'मूकमाटी' मात्र एक कृति ही नहीं सम्पूर्ण सृष्टि का वह सारतत्व है, जिसे के द्वारा जिनवाणी के प्रसाद को यदि हम सब सम्पूर्ण भारत वर्ष में | आज तक कोई साहित्यकार किसी एक रचना में संयोजित करने बाँटने के लिए कृत संकल्प हो जायें तो इस सृष्टि का कल्याण होने का दुर्लभ प्रयास नहीं कर सका और न कर पायेगा। में देर नहीं लगेगी। संक्षेप में बस इतना ही कहना चाहूँगा कि 'मूकमाटी' एक 6. मूकमाटी के माध्यम से 'ज्ञान जागरण' का ऐसा संदेश ऐसी रचना है जिसने साहित्य जगत् की मनीषा को झंकृत करने के द्वार-द्वार तक पहुँचना चाहिए जिससे कि संसार के दिग्भ्रमित साथ-साथ इस बात पर विचार करने के लिए साहित्यकारों को प्राणी सही दिशा प्राप्त कर सकें। यदि ऐसा हुआ तो निःसंदेह | विवश किया है कि आज तक किसी साहित्यकार की किसी कृति सदियाँ आचार्य श्री के इस अवदान को कभी विस्मृत नहीं कर | पर इतना विचार-विमर्श नहीं हुआ जितना कि 'मूकमाटी' पर । पायेंगी। सच तो यह है कि 'मूकमाटी' ने लोगों को इतना अधिक बोलने 7. जब एक कुशल रचनाकार जीवन और जगत की मार्मिक | पर विवश किया है कि जिसका कोई अंत नहीं। इसीलिए वर्तमान संवेदनाओं की अतल गहराईयों में उतर जाता है तब उसकी रचना | समीक्षकों के द्वारा 800 से अधिक मूकमाटी' पर समीक्षाएँ लिखे फिर किसी 'कोश' का अनुशरण नहीं करती । वरन् कोशकारों के | जाने के बावजूद भी विद्वान यही कहते हैं 'न इति, न इति' अर्थात् लिए एक नई शब्दावली प्रदान करती है। मूकमाटी में आचार्य श्री | अभी भी काफी कुछ कहना शेष है। बस। की रचनात्मक अतलता को देखकर ऐसा लगता है कि वे विपुल प्रोफेसर एवं अध्यक्ष - हिन्दी विभाग और विस्मयकारी शब्द-भण्डार के स्वामी हैं और यही वजह है शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय टीकमगढ़ (म.प्र.) बोधकथा सौदा न पटा किसी गांव में एक पुराने सेठ रहते थे। वह एक बार | मोल बता।" बकरीवाले ने अंगूठी देख ली और जान गया कि कहीं बकरियों की खोज में निकले। किसीने बताया कि अमुक | ऐसा संकेत इसने मुझे अंगूठी दिखाने के लिए ही किया है। गाँव के अमुक आदमी के पास बकरियाँ हैं। वहीं वह चल दिए। | उसने मन ही मन कहा कि बड़ी शान दिखाता है अंगूठी की! जिसके पास वे बकरियाँ थीं, वह मामूली आदमी था। वह सेठ | उसके दाँतों पर सोने की फूली थी। उसने इस तरह कहने को को नहीं पहचानता था। इसलिए उसने उनकी विशेष आवभगत | मुंह खोला कि दांत दिखाई दें और कहा, "पच्चीस रुपया।" नहीं की। उसने सोचा, यहाँ बहुत से व्यापारी आते हैं। होगा | सेठ समझ गए कि दांत की फूली दिखाना उनकी अंगूठी कोई ऐसा ही । इसलिए उसने उनसे तम्बाखू पाने की भी न | दिखाने का जवाब था। वहाँ पर एक दूसरा आदमी भी बैठा था। पूछी। सेठजी को बहुत बुरा लगा, पर दूसरे के घर पर क्या | उसने सोचा, यह तो कोई अंगूठी दिखा रहा है, कोई फूली, मैं कहते ? उन्होंने बकरियाँ दिखाने को कहा। बकरियोंवाला उनको | क्या इनसे कम हूँ! उसके कानों में बालियां थीं। जैसे ही बकरी गोठ में ले गया। सेठ ने बकरियाँ देखीं और कहा, 'तो कहो | वाले ने बकरी की कीमत पच्चीस रुपया बताई, उसने सिर मोल।' बकरी वाले ने कहा, "मोल तो हो ही जायगा। लेकिन | हिलाया, "नहीं ज्यादा कह रहे हो।" और उसकी बालियां ध्यान रखना कि मैं उधार नहीं दूगा।" सेठ को बुरा लगा। हिलती हुई दीखने लगीं। उन्होंने सोचा, यह आदमी मुझे क्या समझता है ! उनके हाथ में बस, फिर बकरी का मोल कहाँ होना था ! वे अपनीसोने की अंगूठी थी । वह बता देना चाहते थे कि वह सेठ हैं, पर | अपनी शान दिखाने लगे। उनका सौदा क्यों कर पटता! मुंह से कहना उन्होंने ठीक न समझा। इसलिए उन्होंने उस उंगली से, जिसमें अंगूठी थी, संकेत किया, "इस बकरी का लघु लोक कथाएँ : गोविन्द चातक -अगस्त 2003 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40