Book Title: Jinabhashita 2003 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 39
________________ जापान में प्रचलित येन मत और जैनधर्म 'दिनमान' के 1.10.77 के अंक में 'धर्म-दर्शन' खंड में प्रकाशित 'आत्मानुकूल पथ' नामक शीर्षक में बताया गया है कि जीन कारपेंतियरने अपने एक भाषण में येन मतको बौद्ध धर्मकी एक शाखा बताया है। परंतु यह कुछ बातों में बौद्ध धर्म से बिलकुल भिन्न है। | येन मत पूर्णत: आत्मानुभूति पर आधारित है। इसमें गुरु के उपदेश तथा प्रवचन को कोई स्थान नहीं है। इसे सभी अपना सकते हैं। यह एक प्रकार का स्त्र- अनुशासन है। इस मत में सभी धर्मों के मिश्रण की अभूतपूर्व संभावनायें हैं। योग विज्ञान तथा अनुशासनका इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। यह मत इतना व्यापक है कि रूढ़िवादी अर्थों में बौद्ध धर्म की श्रेणी में नहीं आता। यह मुख्यतः ध्यान मुलक धर्म है। इसमें ध्यान के केन्द्रीयकरण को एक निश्चित बिन्दु तक पहुचाने की आवश्यकता है। यह मनोविज्ञान से जुड़ा हुआ है और रहस्यमय है । यह धर्म और समाज में सन्तुलन लाता है। यह मत उपनिषद् धर्म के अधिक समीप लगता है। डॉ. कारपेंतियरने अनेक प्राचीन धर्म ग्रन्थों के आधार पर यह भी प्रमाणित किया है कि बौद्ध धर्म पर ही येनमतकी पपड़ी है।हरणार्थ, योग में चित निरोध, आत्मानुभूति समय और धार्मिक क्रियायें येनमत की हो विशेषतायें हैं, बौद्ध धमकी नहीं। मुझे पन्द्रह वर्ष पूर्व येनमत के विषय में जानकारी प्राप्त हुई थी। मैंने अनेक विदेशमन्ताओं से इसके विषय में विशेष जानकारी चाही थी, पर उनका विश्वास था कि जापान में तो बौद्ध धर्म हो है, येन जैसा कोई पृथक धर्म नहीं है। अपने शोधकों के प्रसाद से मैं इस विषय पर विस्तृत विचार नहीं कर पाया। लेकिन डॉ. कारपंतियर के विवरण से इस विषय में जो तथ्य सामने आते हैं। वे मेरी दृष्टि से निम्न है: येनमत जैनधर्म की शाखा सम्भावित है क्योंकि इसमें वर्णित स्वानुभूति ही सम्यग्दर्शन है और स्व अनुशासन ही निश्रय चारित्र है। इन दोनों का संबंध आत्माश्रयी है वाहासोती नहीं। इसमें अनेक धर्मों के मिश्रण की संभावनायें इसके अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं। इसका ध्यान जैनधर्म में मोक्ष या निर्वाण या आत्मानुभूतिका साधन बताया गया है। जैनधर्म भी आत्मा को शुद्ध, बुद्ध मानता है और Jain Education International पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री कटनी निर्वाण को ईश्वर कृपा पर निर्भर नहीं मानता। येनके समान ही जैनधर्म भी दरबारी धर्म नहीं रहा । यह बौद्धधर्म से पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्वनाथ के समय में भी प्रचलित था। इसमें वीतरागता और आत्मानुभूतिको उच्च स्थान प्राप्त है। जैनधर्म में समय पर भी बल दिया गया है। इस प्रकार येन और जैनधर्म में न केवल नाम साम्य है. अपितु उसके सिद्धान्त भी समान हैं। क्या ऐसा माना जा सकता है कि सहस्रों वर्ष पूर्व जब बोद्ध चिन्तक एशियाई देशों में धर्म प्रचार हेतु गये थे, तब जैन चिन्तक भी गये हों ? उस समय जहाँ जैनधर्म का अधिक प्रभाव पड़ा हो, वे आज भी येन कहलाते हों ? यह विचार मात्र भावनात्मक नहीं हो सकता, इस विषय में शोधकों को विचार करना चाहिये । जैनधमांनुयायी वाणिज्यिक रहे हैं और आज भी उनका इसी ओर झुकाव है। इसलिये उनसे इस प्रकार की खोज की क्या आशा की जावे ? इनकी अनेक संस्थाओं को तो अपने देश में ही अपने धर्म और समाज पर वात्सल्य नहीं है, फिर विदेशों की तो बात हो क्या? क्या सराक जाति संबंधी शोध से हमारी समाज या संस्थायें प्रभावित हुई हैं? संस्कृतज्ञ विद्वानों को भी पारस्परिक शास्त्रार्थ में ही विश्वास है। मैं इस लेख द्वारा समाज के प्रबुद्ध वर्ग तथा धार्मिक वर्ग का ध्यान इस प्रकार की शोधों की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। उन्हें आज की आवश्यकता को समझने तथा अनुदार वृत्ति को छोड़ने का आग्रह करना चाहता हूँ। इसके बिना धर्म की उन्नति प्रभावना प्रचार-प्रसार व कालान्तर स्थायित्व कुछ भी नहीं हो सकता। मेरे ध्यान में हमारे प्रमाद के अनेक उदाहरण हैं। एक बार एक प्रभावी राजनीतिक नेता ने भूतपूर्व सिन्ध प्रान्त में जैनधर्म और उसके तीर्थकरों के विषय में एक लेख लिखा था। वह बड़ा ही रोचक एवं ऐतिहासिक विषय था। लेकिन उसपर भी हमारा ध्यान नहीं गया। यही नहीं, कभी-कभी तो हम शोधकों को हतोत्साह भी करते हैं। एक बार इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध अजैन विद्वान ने हुकुमचन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थ के लिए एक जैन इतिहास से सम्बन्धित गवेषणापूर्ण लेख भेजा था। वह लेख प्रकाशित तो नहीं ही किया गया, उसे लौटाया भी नहीं गया। इसीलिए एक बार जब मैंने उन्हें महावीर जयन्ती पर कटनी आमन्त्रित किया, तो उन्होंने नकारात्मक उत्तर देते हुए लिखा, "मुझे जैनों से जुगुप्सा हो गई है।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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