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5. उपसर्ग केवली
भोजन करता है तो दोष का भागी होता है। 6. समुद्घात केवली
व्याख्या - साधु के हाथ में पड़ा हुआ आगम से अविरुद्ध 7. मूक केवली
योग्य आहार (भोजन का ग्रास) किसी दूसरे को देने के योग्य नहीं 8. सामान्य केवलो
होता। यदि वह साधु अपनी रुचि तथा पसन्द न होने के कारण 9. अयोग केवली
उसे स्वयं न खाकर किसी को देता है या किसी अन्य को खाने के जिज्ञासा - क्या मिथ्यादृष्टि जीव सौधर्म स्वर्ग की उत्कृष्ट निमित्त कहीं रख देता है तो उस साधु को फिर और भोजन नहीं आयु प्राप्त कर सकता है?
करना चाहिए, यदि वह दूसरा भोजन करता है तो दोष का भागी समाधान - उपरोक्त प्रश्न के समाधान में श्री धवला होता है सम्भवतः 'यथालब्ध' शुद्ध भोजन न लेने आदि का उसे पुस्तक-4 में कहा है कि सौधर्म कल्प में उत्पन्न होने वाले मिथ्यादृष्टि | दोष लगता है। जीव, उत्कृष्ट आयु ढाई सागर प्राप्त नहीं कर सकते। प्रमाण इस
(व्याख्याकार-पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार "युगवीर") प्रकार हैं
जिज्ञासा- तिर्यंचों में कितने संस्थान पाये जाते हैं ? क्या ___ "मिच्छादिट्टी जदि सुह महंतं करेदि। तो पलिदोवमस्स
कोई तिर्यंच समचतुरस्त्र संस्थान वाले भी हो सकते हैं। असंखेज्जदिभागेणब्भधियवेसागरोवमाणि करेदि। सोहम्मे
समाधान - उपरोक्त विषय पर श्रीमूलाचार गाथा 1091 उपज्जमाणमिच्छादिट्ठीणं एदम्हादो अहियाउट्ठवणे सत्तीए अभावा।
की टीका में इस प्रकार कहा है..... अंतोमुहुत्तूणड्डाइज्जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिट्ठिस्स
हरितत्रसाः प्रत्येकसाधारणवादरसूक्ष्म वनस्पति द्वीन्द्रिय सो हम्मणिवासिस्स मिच्छ तगमणे संभवाभावो.....
त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रयाः, भवणादिसहस्सारंतदेवेसु मिच्छाइट्ठिस्स दुविहाउट्ठिदिपरुवण्णा
णेगसंठाणा-अनेकसंस्थाना नैकमनेकमनेक संस्थानं येषां हाणुबवत्तीदो।"
तेऽनेकसंस्थाना अनेक हुंडसंस्थानविकल्पा अनेकशरीराकाराः । अर्थ - मिथ्यादृष्टि जीव यदि अच्छी तरह खूब बड़ी भी
अर्थ - प्रत्येक, साधारण, वादर, सूक्ष्म वनस्पति, द्विन्द्रिय, स्थिति करे, तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अभ्यधिक दो
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय जीव के शरीर का आकार एक प्रकार का नहीं सागरोपम करता है, क्योंकि सौधर्म कल्प में उत्पन्न होने वाले
है, अनेक आकार रूप है अर्थात् ये सब अनेक भेद रूप हुण्डक मिथ्यादृष्टि जीवों के इस उत्कृष्ट स्थिति से अधिक आयु की स्थिति
संस्थान वाले हैं। पचेन्द्रिय तिर्यंचों के बारे में गाथा नं. 1092 में स्थापन करने की शक्ति का अभाव है। ..... अन्तर्मुहूर्त कम ढाई
कहा है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच छहों संस्थान वाले होते हैं। सागरोपम की स्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी
श्री सिद्धांतसागर दीपक में भी इस प्रकार कहा हैसम्यग्दृष्टि देव के मिथ्यात्व में जाने की सम्भावना का अभाव है।
मनुष्याणां च पञ्चाक्षतिर श्वां सन्ति तानि षट् । ...... अन्यथा भवनवासियों से लेकर सहस्त्रार तक के देवों में
देवानामादिसंस्थान नारकाणां हि हुण्डकम्॥ 116 ।। मिथ्यादृष्टि जीवों के दो प्रकार की आयु स्थिति की प्ररूपणा हो
द्वित्रितुर्येन्द्रियाणां च सर्वेषां हरिताङ्गिनाम् । नहीं सकती थी।
अनेकाकारसंस्थानं हुण्डाख्यं स्याद् विरूपकम।।117 ॥ जिज्ञासा - वर्तमान में कुछ मुनिराज अपने हाथ में आए अर्थ- मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के छहों संस्थान होते किसी मिष्ठान को, किसी अपने भक्त के लिए प्रसाद रूप में देने हैं। देवों के समचतुरस्त्र एवं नारकियों के हुण्डक संस्थान ही होते लगे हैं। क्या उनका इस तरह देना आगम सम्मत है?
हैं ।।116 ॥ द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के तथा सम्पूर्ण समाधान - श्री योगसार प्राभृत (ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ वनस्पतिकायिक जीवों के विविध आकारों को लिए हुए विरूप 183) में आचार्य अमितगति महाराज ने इस प्रकार कहा है- | आकार वाला हुण्डक संस्थान होता है । 117 ।। पिण्डः पाणि-गतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते।
उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय दीयते चेन्न भोक्त्व्यं भुङ्क्ते चेद् दोषभाग्यतिः।।64॥ | तिर्यंचों के अनेक आकार वाला हुण्डक संस्थान एवं पंचेन्द्रिय
अर्थ- साधु के हाथ में पड़ा हुआ आहार दूसरे को देने के | तिर्यंचों में छहों संस्थान पाए जाते हैं। योग्य नहीं होता (और इसलिए नहीं दिया जाता) यदि दिया जाता है तो साधु को फिर भोजन नहीं लेना चाहिए, यदि वह साधु अन्य |
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी,
आगरा-282 002
24 अगस्त 2003 जिनभाषित -
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