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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
प्रश्नकर्ता - एच.डी.बोपलकर, उस्मानाबाद
श्री धवला पुस्तक-9 गाथा 120 में इस प्रकार कहा हैजिज्ञासा - किसी तीर्थंकर का तीर्थकाल कब से माना
छासट्ठिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किमठें करिये। जाना चाहिए?
केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो॥ समाधान - उपरोक्त विषय पर श्री तिलोयपण्णत्ति गाथा
अर्थ - केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी 66 दिन 1285 में इस प्रकार कहा है
तक उनमें तीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिए उनके केवलीकाल इगवीस-सहस्साणिं, दुदाल वीरस्स सो कालो॥1285॥ में 66 दिन कम किए जाते हैं। अर्थ- वीर भगवान् का तीर्थकाल इक्कीस हजार व्यालीस
उपरोक्त श्री धवला व श्री कषायपाहुड़ के मतानुसार तीर्थ वर्ष प्रमाण है ।। 1285 ।। अर्थात् भगवान् महावीर का छदमस्थकाल | की उत्पत्ति अथवा तीर्थकाल का प्रारंभ दिव्यध्वनि के आरंभ से 12 वर्ष और केवलज्ञान काल 30 वर्ष है (देखें श्री तिलोयपण्णत्ति है। बहुत से आचार्यों एवं विद्वानों के मुख से भी भगवान् महावीर गाथा नं. 685) अर्थात् चतुर्थकाल के 42 वर्ष + 3 वर्ष साढ़े 8 के तीर्थ की उत्पत्ति श्रावण वदी एकम ही सुनते आए हैं। तीर्थ की माह शेष रहने पर भगवान् की दीक्षा हुई थी और पंचमकाल के | | उत्पत्ति दीक्षाकाल से होती है ऐसा कभी सुनने में नहीं आया। फिर तीन वर्ष साढ़े 8 माह शेष रहने पर धर्म की व्युच्छित्ती हुई थी।। भी श्री तिलोयपण्णत्तिकार का उपरोक्त मत विद्वानों के द्वारा ध्यान अतः उपरोक्त गाथा से स्पष्ट होता है कि तीर्थकाल का प्रारंभ दीक्षा | में रखने योग्य है। लेते ही मानना चाहिए।
जिज्ञासा- हींग भक्ष है या अभक्ष ? परन्तु श्री धवलाकार एवं श्री कषायपाहुड़कार का मत
समाधान - ईरान, काबुल आदि स्थानों में एक वृक्षों की इससे भिन्न है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग-3, पृष्ठ 291 पर तीर्थ / जाति ऐसी है, जिनमें चीरा लगाने से दूध की तरह एक वस्तु उत्पत्ति के संबंध में श्रीधवला पुस्तक-1 का प्रमाण इस प्रकार टपकती है। नीचे गठ्ठा कर दिया जाता है, जिसमें यह दूध-सा दिया है
पदार्थ इकट्ठा होता रहता है, इसी पदार्थ को हींग कहते हैं। इस इम्मिस्से वसिप्पिणीए चउत्थ-समयस्य पिच्छमे भाए। वस्तु को जब गड्ढे से निकाला जाता है तब यह लिवलिवे की चोत्तीसवाससेसे किंचिविसेसूणए संते ॥ 55॥| शक्ल में होता है। ईरान के लोग इस पदार्थ को बकरे की खाल में वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्हि सावणे बहुले।। पैक करते हैं और काबुल के लोग प्लास्टिक या टाट की पैकिंग में पाडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती द अभिजिम्हि ।। 56॥| पैक करते हैं। काबुल या ईरान से भारत आने तक यह पदार्थ सावण बहुलपडिवदे रुद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो। सूखता नहीं है बल्कि लिवलिवे की शक्ल में बना रहता है। यहाँ
अभिजिस्स पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयव्वो॥ 75।। आने पर उन बोरों या बकरे की खाल को बड़े-बड़े चाकुओं से
अर्थ- इस अवसर्पिणी कल्पकाल के दुःषमा सुषमा नाम काटकर इस लिवलिवे पदार्थ को सुखाया जाता है। हाथरस आदि के चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम 34 वर्ष बाकी रहने स्थानों पर इस गीली हींग को सुखाने की बहुत सारी फैक्ट्रियाँ हैं। पर, वर्ष के प्रथम मास अर्थात् श्रावण मास में प्रथम अर्थात् कृष्णपक्ष | इसको सुखाकर फिर इसकी पैकिंग की जाती है। प्रतिपदा के दिन प्रात:काल के समय आकाश में अभिजित नक्षत्र बाजार में हींग दो प्रकार की बिकती है। एक तो वह है जो के उदित होते रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई। 55-56॥ श्रावण | एक इंची-डेढ़ इंची के टुकड़ों में आती है और जिसे उत्तर प्रदेश कृष्ण प्रतिपदा के दिन रुद्रमुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और | में हड्डा हींग कहा जाता है। इसका रंग कत्थे जैसा गहरा होता है अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग की आदि हुई तभी तीर्थ | यह ईरान से आई हुई बकरे की खाल वाली हींग है। यदि इसको की उत्पत्ति समझना चाहिए (श्री धवला पुस्तक-9 गाथा 29/120, | सूंघा जाए तो इसमें खाल की बदबू भी आती है और यदाकदा तथा श्री कषाय पाहुड़ पुस्तक-1, गाथा 20/74 पर भी इसी प्रकार | बकरे के बाल भी दिखाई देते हैं। दूसरी हींग वह है जो चूरे की कहा है)।
शक्ल में बिकती है और जिसे हींगड़ा के नाम से पुकारा जाता है।
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अगस्त 2003 जिनभाषित
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