Book Title: Jinabhashita 2003 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ ज़रा सोचिये! पद्मचन्द शास्त्री । क्या जैन जिन्दा रह सकेगा? मकानों, कोठियों, बंगलों और यहाँ तक कि वह बकिंघम पैलेस जैसे चन्द लोग इकट्ठे होते हैं और आकाश गुंजाने को जोर | जैसे महलों में रहने के स्वप्न देखता और वैसे प्रयत्न करता है। से नारा लगाते हैं- 'जैन धर्म की जय।' नारे से आकाश तो गंजता | जिसे दीक्षा के पूर्व ख्याति, पूजा-प्रतिष्ठा की चाह न थी, वह है, पर, क्षण भर में वह गूंज कहाँ विलीन हो जाती है ? इसे सोचिए उत्सवों, कार्यक्रमों आदि के बहाने बड़े-बड़े पोस्टरों में बड़ीकहीं वह अस्तित्व रखते हुए भी अरूपी आकाश में तो नहीं समा | बड़ी पदवियों सहित अपने नाम फोटो और वैसी किताबें छपाना जाती। इसी प्रकार आज जैन को ढूंढना भी मुश्किल है, वह भी | चाहता-छपाता है। जिसे दीक्षा पूर्व लोग जानते भी न थे-कोने में चूर-चूर होकर बिखर चुका है? शायद कहीं वह भी तो अरूपी बैठा रहता हो वह दीक्षा के बाद सिंहासनारूढ़ होकर सभाओं में आकाश में नहीं समा गया? देखिए, जरा गौर से-यदि ज्ञान-दीपक | अपने जयकारे चाहता है। जो घर से सीमित परिवार का मोह त्याग लेकर ढूंढे तो शायद मिल जाय! वैराग्य की ओर बढ़ा था वह उपकार के बहाने सीमित की बजाय आप किसी मंदिर में जाइए वहाँ आप समवसरण के कीमती | श्रावक-श्राविका और सेठ-साहूकारों जैसे बड़े परिवारों के फेर में से कीमती वैभव को देख सकेंगे, पाषाण-निर्मित प्रतिबिम्बों को फँस जाता है, उनके वैभव से घिर जाता है । ये सब तो ग्रहण करने देख सकेंगे- वे बिम्ब चाँदी, सोने, हीरे और पन्नों के भी हो सकते के चिन्ह हैं और ग्रहण करने में जैन कहाँ? जैन तो उत्तरोत्तर त्याग हैं, आप आसानी से देख सकेंगे। पर जैन आपको अपनी आँखों या में है, आकिंचन्य में है। हाँ, सच्चे त्यागी होंगे अवश्य-उनको भावों से कदाचित् ही दिखें। खोजिए, जहाँ वे हों, जाइए और नमन कीजिए, इसमें आपका भी ऐसे ही किसी त्यागी समाज में जाकर देखिए वहाँ आपको | भला है। लाल, गेरुआ, पीत, श्वेत या दिगम्बर चोला तो दिखेगा, पर, जिसे श्रावकों की मत पूछिए, वे भी कहाँ, कितने हैं? होंगे आप खोज रहे हैं वह 'जैन' न मिलेगा। ऐसे ही किसी पण्डित के | बहुत थोड़े कहीं- किन्हीं आकाश प्रदेशों में, श्रद्धा और विवेकपूर्वक पास जाइए उसे सुनिए : आपको सिद्धान्त और आगम की लम्बी | श्रावक की दैनिक क्रियाओं में लीन। वरना, अधिकाँश जन चौड़ी व्याख्याएँ मिलेंगी, क्रिया-काण्ड मिलेगा पर, 'जैन' के समुदाय तो इस पद से अछूता ही है- रात्रि-भोजी और मकारदर्शन वहाँ भी मुश्किल से हो सकेंगे। धन-वैभव में तो जैन के सेवी तक। जिन्हें हम श्रावक माने बैठे हैं, तथोचित सर्वोच्च जैसे मिलने का प्रश्न ही नहीं-जहाँ लोग आज खोजते हैं। सम्मान आदि तक दे रहे हैं, शायद कदाचित् उनमें कुछ श्रावक आप पूछेगे भला, वह जैन क्या है, जिसे देखने की आप हों, तो दैनिक क्रियाओं की कसौटी पर कस कर उन्हें देखिए। बात कर रहे हैं? आखिर, उस जैन को कहाँ देखा जाय? तो | वरना, वर्तमान वातावरण से तो हम यह ही समझ पाए हैं कि इस सुनिए युग में पैसा ही श्रावक और पैसा ही प्रमुख है- सब उधर ही दौड़ 'जैन' आत्मा का निर्मल, स्वाभाविक रूप है, वह सरल | रहे हैं। आत्माओं के भावों और आचार विचारों से मुखरित होता है। जहाँ | पण्डित, 'पण्डा' वाला होता है और 'पण्डा' बुद्धि को मलीनता, बनावट और दिखावा न हो वहाँ झलकता है। आप देखें | कहते हैं - 'पण्डा' बुद्धिर्यस्यस: पण्डितः अर्थात् जिसमें बुद्धि ये जो कई श्रावक हैं. पण्डित हैं. त्यागी और नेता हैं. इनमें कितने, | हो वह पण्डित है । आज कितने नामधारियों में कैसी बुद्धि है, इसे किस अंश में मलीनता, बनावट और दिखावे से कितनी दूर हैं? | जिनमार्ग की दृष्टि से सोचिए। जब जिनमार्ग विरागरूप है तब जो इनमें जैन हो। क्या कहें? आज तो त्याग की परिभाषा भी | वर्तमान पीढ़ी में कितने नामधारी, पं. प्रवर टोडरमल जी, पं. बदली जैसी दिखती है। त्याग तो जैन बनने का सही मार्ग है और बनारसीदास जी और गुरुवर्य पं. गोपालदास जी बरैया, पं. वह मार्ग अन्तरंग व बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रहों को कृश करने गणेशप्रसाद वर्णी जैसे सन्मार्ग राही और अल्प सन्तोषी हैं? जो और परिग्रहों के अभाव में मिलता है। अर्थात् परिग्रह की जिस उक्त परिभाषा में खरे उतरते हों या जो लौकिक लाभों और भयों स्थिति को छोड़कर व्यक्ति घर से चला हो उस स्थिति की अपेक्षा की सीमा लांघे-बिना किसी झिझक के सही रूप में जिनवाणी के परिग्रह में हीनता होते जाना त्याग की सच्ची पहिचान है। पर, अनुसर्ता या उपदेष्टा हों? कडुवा तो लगेगा, पर, आज के त्यागी आज तो परिस्थिति अधिकांश ऐसी है कि जो पुरुष दीक्षा-नियम | वर्ग की शिथिलता में कुछ पण्डितों, कुछ सेठों या श्रावकों का से पूर्व किसी झोपड़ी, साधारण से सुविधारहित कच्चे-पके घर में | कुछ हाथ न हो-ऐसा सर्वथा नहीं है। कई लोग हाँ में हाँ करके रहता था वह त्यागी नामकरण होने के बाद सुन्दर,स्वच्छ, सुविधायुक्त | (भी) मार्ग बिगाड़ने में सहयोगी हों तब भी सन्देह नहीं। कुछ 14 अगस्त 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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