Book Title: Jinabhashita 2003 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ पंडितों की अहं पण्डा (बुद्धि) के कारण, उनके सहयोग से मूल | ऐसा बहुमुखी है जो चाहे जिधर मोड़ा जा सकता है- नेता अच्छों आगम रूप भी बदलाव पर हो तो भी सन्देह नहीं। हम आगम के के भी हो सकते हैं और गिरों के भी, धर्मात्माओं के भी हो सकते पक्षपाती हैं। हम नहीं चाहते कि कोई अपनी बुद्धि से आगमों में | हैं। पर, यहाँ 'मोक्ष मार्गस्य नेतारं' की नहीं, तो कम से कम जैन परिवर्तन लाए। हम तो पूर्वाचार्यों की चरण-रज -तुल्य भी नहीं, समाज और जैन धर्म के नेताओं की बात तो कर ही रहे हैं कि वे जो उनकी भाषा में किन्हीं बहानों से परिवर्तन लाएँ- आचार्यों ने | (यदि ऐसा करते हों तो) केवल नाम धराने के उद्देश्य से दिखावा किस शब्द को किस भाव में कहाँ, किस रूप में रखा है इसे वे ही | न कर जनता को धर्म के मार्ग में सही रूप में ले चलें और स्वयं जानें- इस विषय को आचार्यों की स्व-हस्तलिखित प्रतियों की | भी तदनुरूप सही आचरण करें। जिससे जैन धर्म टिका रह सके। उपलब्धि पर सोचा जा सकता है, पहिले नहीं। जैसा हो, विचारें। यदि ऐसा होता है तो हम कह सकेंगे- हाँ, जैन जिन्दा रह सकेगा। अब रह गये नेता । सो नेताओं की क्या कहें? वे हमारे भी | असलियत क्या है ? जरा सोचिए! नेता हैं। गुस्ताखी माफ हो, इसमें हमारा वश नहीं। नेता शब्द ही । सिद्धान्त समन्वय सार ब्र. शान्ति कुमार जैन परम आराध्य देव श्री नेमीनाथ जी तीर्थंकर भगवान् की । था। मांस खिलाने वाले राजा की कन्या से विवाह सम्बन्ध को दीक्षा में वैराग्य के विषय में कुछ नवीन चिन्तन है। विद्वत् वर्ग | स्वीकार ही नहीं किया जा सकता है। निष्पक्ष विचार करें। अच्छी लगे तो ग्रहण करें अन्यथा छोड़ देवें।। | नेमीनाथ के साथ शक्ति परीक्षण में कृष्ण जी का पराजित मेरा कोई हठाग्रह नहीं है। | होने के पश्चात् विवाह के लिए उन्हें तैयार करने का कार्य तो तृण भक्षी शाकाहारी अनेक प्रकार के पशुओं को देख कर | वसन्त की वन क्रिड़ाओं में अपनी रानियों के द्वारा करा ही दिया भगवान् के मन में जिज्ञासा का होना स्वाभाविक है। विवाहोत्सव | गया था। उस प्रकरण में भी जलक्रीड़ा के अनन्तर गीले कपड़ों में कन्या पक्ष में अतिथि मेहमान अनेक आते हैं। बराती भी अनेक | को निचोड़ने के लिए कृष्ण जी की प्रियतमा रानी जाम्बुवती के आये। आने वाले वाहनों पर आए तो वाहनों के लिए अवस्थान | | प्रति संकेत करना भी अनावश्यक लगता है। कारण गृहस्थावस्था का स्थान भी मार्ग के किनारे पर ही बनाया जाता है। शाकाहारी | में तो तीर्थंकर देवों के द्वारा लाये गए वस्त्राभूषण पहनते हैं एवं पशुओं को ही वाहनों के रुप में प्रयोग किया जाता है। आहारादि ग्रहण करते हैं तपि राजा महाराजाओं के पास इन वे सारे पशु अनेक जाति के हो सकते हैं। जिसके पास | कार्यों के लिए दास दासियाँ अनेक होती हैं। नेमीनाथ के द्वारा जैसा जो वाहन रहा तो लेकर आयेगा। अब एक स्थान पर अनेक | कृष्ण जी की नागशय्या पर चढ़ कर शंखनाद करने के प्रकरण के तरह के बड़ी संख्या में पशुओं के एकत्रित होने पर उनसे निकली | अवतरण के लिए यह प्रसंग असंगत जैसा लगता है। भाभियों के हुई आवाजें, कोलाहल, आपस में लड़ना-भिड़ना तो होते ही | द्वारा छेड़छाड़ तो देवर के प्रति होती ही रहती है। अन्य किसी बात रहता है। पर नेमीनाथ जी को क्रोध आना सम्भव हो सकता था। उसी रास्ते से नेमी कुमार जी का रथ भी आया तो उन | यह नूतन चिन्तन का अभिप्राय विसंगति को सिद्धान्त के पशुओं को देखकर उनके मन में करुणा-दया का उद्रेक हुआ। परिप्रेक्ष में समन्वय करना मात्र है। इस सद् प्रयास में कोई भूल हो पशुगति के दुःखों का स्मरण हुआ तो वैराग्य आ गया। गई हो तो हम आचार्य महाराज एवं विद्वत् वर्ग से क्षमा प्रार्थी हैं। उनके स्वयं के पास अवधिज्ञान था पर उसका प्रयोग भी | उत्तरपुराण में यही प्रसंग भिन्न रूप से है। कृष्ण जी ने नहीं किया, आवश्यकता भी नहीं थी। तो फिर सारथी को पूछना | हिरणों को एकत्रित कराकर एक स्थान पर रखवा दिया था। क्षेत्र एवं सारथी के द्वारा दिया गया उत्तर असंगत सा लगता है। रक्षक को कह दिया था कि नेमिकुमार के पूछने पर मांस भोजन मांसाहारी अतिथियों को शाकाहारी मांस खिलावे तदर्थ तृणभोजी | की व्यवस्था के लिए रखा गया है, ऐसा कह देवें। वैसा ही ज्ञात पशुओं की हत्या करने की व्यवस्था करें, यह बात गले नहीं | होने पर भी नेमीकुमार जी ने अपने ज्ञान से यह जान लिया था कि उतरती । राजुल आर्यिका बनी थी, तो उनका पिता ऐसा कार्य करे, | यह सब कृष्ण जी की मायाचारी एवं कपट नीति का ही कार्य है, यह भी ठीक नहीं लगता। ऐसा तो आज भी सद् गृहस्थ श्रावक | जो कि राज्य प्राप्ति के लिए मुझे वैराग्य भावना की उपलब्धी के के घर विवाहादि आयोजनों में नहीं होता। किसी की दुरभिसंधी | लिए किया गया है। विवाह किए बिना ही वे अपने स्थान पर लौट से प्रेरित होकर एक सामान्य सारथी राजकुमार नेम कुँवर के | गये एवं वैराग्य भावना का चिन्तवन करने लगे, तो लोकान्तिक समक्ष मिथ्याभाषण करे, यह भी उचित नहीं लगता। आगंतुक | आदि देवों ने आकर दीक्षा महोत्सव, तप कल्याणक सम्पन्न सभी वाहनों के पशु वहाँ रखे ही जा रहे थे, यह स्पष्ट दिख रहा | किया था। अगस्त 2003 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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