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नहीं, नैष्ठिक करता है और साधक पूर्ण करता है प्रमुख रूप से | श्रावक का विस्तार से विवेचन किया गया है। यहाँ पर पाक्षिक श्रावक की आचार संहिता पर विचार करते हैं। । सामान्यतया पाक्षिक श्रावक को चौथे गुणस्थान वाला
पाक्षिक श्रावक का क्या आचार है, इसका विवेचन आशाधर । अव्रती सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।अप्रत्याख्यानावरण चारित्रने सागार धर्मामृत के द्वितीय अध्याय में किया है।
मोहनीय कर्म का क्षयोपशम न होने के कारण यद्यपि यह व्रत नैष्ठिक श्रावक प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है और | धारण नहीं कर सकता तथापि उसका आचरण सर्वथा अनियन्त्रित, सल्लेखना धारण करने वाला साधक श्रावक।
उच्छंखल और सामाजिक दृष्टि से अहितकर नहीं होता। ऐसा __गृहस्थ की आचार संहिता का उपर्युक्त विवेचन एकदूसरे
प्रतीत होता है कि ऐसे श्रावक को ध्यान में रखकर ही आचार्यों ने से सर्वथा निरपेक्ष नहीं है।
अष्टमूलगुणों के पालन तथा सप्तव्यसन-त्याग आदि का विवेचन ग्यारह प्रतिमाओं के अन्तर्गत बारह व्रत समाहित हो जाते
किया है। हैं । पाक्षिक आदि भेदों के अन्तर्गत बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाएँ भी समाहित हो जाती हैं। गुणस्थानों की दृष्टि से भी इसमें कोई
श्रावक के मूल गुण - विरोध उपस्थित नहीं होता।
जैन वाङ्गमय के पर्यालोचन से श्रावक के मूलगुणों के गृहस्थाचार विषयक साहित्य के पर्यालोचन से ऐसा प्रतीत |
सम्बन्ध में जो जानकारी मिलती है उसे संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त होता है कि विकासक्रम की दृष्टि से ग्यारह प्रतिमाओं तथा पाक्षिक
किया जा सकता हैआदि के रूप में श्रावक का जो वर्गीकरण किया गया है, वह
- 1. कई प्राचीन ग्रन्थों में श्रावक के व्रतों, नियमों आदि का श्रावकाचार को व्यवस्थित रूप देते समय किया गया है । मूलतः
उल्लेख तो किया गया है, किन्तु स्वतन्त्र रूप से मूलगुणों का श्रावक के लिए नियम और व्रताचरण का ही विधान था। यद्यपि
उल्लेख या वर्णन नहीं किया गया। श्वेताम्बर आगमों में भी मूलगुणों आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा किये गये ग्यारह प्रतिमाओं के उल्लेख से
का वर्णन नहीं मिलता। यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि ग्यारह भेदों का वर्गीकरण बहुत
2. मूल गुणों के सम्बन्ध में प्राचीनतम सन्दर्भ से लेकर 17 प्राचीन समय में हो चुका था। -
वीं एवं 18 वीं शताब्दी तक के ग्रन्थों में जो विवरण प्राप्त होता है बारह व्रतों के अन्तर्गत पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और
उसके अनुसार मूलगुणों की निम्नलिखित चार परम्पराएँ प्राप्त होती चार शिक्षाव्रतों का समावेश किया जाता है। अणुव्रतों के अन्तर्गत अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह
1. पांच अणुव्रतों का पालन तथा तीन मकार का त्याग । परिमाणाणुव्रत बताये गये हैं। इनके विषय में प्राचीनतम सन्दर्भ से
2. पांच अणुव्रतों का पालन तथा मांस, मद्य और मधु त्याग। लेकर आज तक विशेष प्रकार का मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता।
3. पांच उदुम्बर फलों तथा तीन मकारों का त्याग। गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत जिन व्रतों की गणना की गयी
4. आतनुति, दया, जलगालन, अरात्रिभोजन, उदुम्बर फलों है, उनमें नामों में भेद प्राप्त होता है।
का त्याग और तीन मकारों का त्याग। सामान्य गृहस्थ या पाक्षिक श्रावक की आचार संहिता -
इस विवरण को निम्न प्रकार अंकित किया जा सकता हैसमन्तभद्र और जिनसेन अमृत, अमितगति
आशाधर पाक्षिक श्रावक संयम के लिये उद्यमी होता है, करता।
शिवकोटि चामुण्डराय आशाधर, श्रावकधर्मदोहा नहीं, नैष्ठिक करता है और साधक पूर्ण करता है। प्रमुख रूप से
सोमदेव देवसेन, मेघावी, सकलकीर्ति यहाँ पर पाक्षिक श्रावक की आचार संहिता पर विचार करते हैं
आशाधर राजमल्ल, सोमसेन आशाधर ने सामान्य गृहस्थ को पाक्षिक श्रावक नाम दिया है। पांच अणुव्रत पांच अणुव्रत पांच उदुम्बर तथा तीन मकार आप्तनुति, दया, उनके अनुसार पाक्षिक श्रावक जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा को
तीन मकार मांस विरति त्याग
जलगालन, त्याग मद्य विरति
अरात्रिभोजन शिरोधार्य करके, हिंसा को छोड़ने के लिए मद्य, मांस, मधु और
मधु विरति
पांच उदुम्बर पांच उदुम्बर फलों के सेवन का त्याग करता है। पांच पापों और
त्याग, तीन सात व्यसनों को छोड़ने का यथाशक्य अभ्यास करता है। यथाशक्ति
मकार त्याग जिन भगवान् की पूजा करता है। जिनबिम्ब, जिनमंदिर, मुनियों के श्रावक के मूल गुणों का विवेचन करते हुए आचार्यों ने लिए वसतिका, स्वाध्यायशाला, भोजनशाला, औषधालय आदि मद्य, मांस, मधु, द्यूत के दोषों का विस्तार से वर्णन किया है। का निर्माण कराता है। गुरुओं की सेवा करता है। अपने सुयोग्य रात्रिभोजन, अगालित जल तथा उदुम्बर फलों के सेवन में हिंसा साधर्मी श्रावक को ही अपनी कन्या देता है। मुनियों को दान देता होने के कारण इनके त्याग की भी गणना मूल गुणों के अन्तर्गत है इस बात का प्रयत्न करता है कि मुनियों की परम्परा बराबर | की गयी है। चलती रहे और गुणवान हो। रात्रि में केवल पानी, औषधि और उदुम्बर फलों के अन्तर्गत बड़, पीपल, उमर, कठूमर तथा पान, इलायची आदि मुख-शुद्धिकारक पदार्थ ही लेता है। ऐसा | पाकर फल के त्याग की बात कही गयी है। इन्हें क्षीरीवृक्षफल कोई आरम्भ नहीं करता जिसमें संकल्पी हिंसा हो। तीर्थयात्रा | | अर्थात जिन वृक्षों से दूध निकलता है, ऐसे वृक्षों के फल भी कहा आदि करता है। सागार धर्मामृत के दूसरे अध्याय में पाक्षिक | गया है। फलों के नामों में सामान्य अन्तर होने पर भी सभी
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अगस्त 2003 जिनभाषित
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