Book Title: Jinabhashita 2003 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य आपका "जिनभाषित" प्रायः मिल जाता है, जून 2003 का अङ्क | है? कृपया सूचित करें। भी मिला। आपका सम्पादकीय - 'द्रव्य और तत्त्व में भेदाभेद' भवदीय कमलेश कमार जैन पढ़ा। द्रव्य और तत्त्व के आगम परक सूक्ष्म विवेचन हेतु अनेकशः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी धन्यवाद। सम्पादकीय का 3/4 अंश पढ़ने के पश्चात् सम्पादकीय "जिनभाषित" माह मई, 2003 का अंक मध्य जून को लेखन का स्रोत ज्ञात हुआ। प्राप्त किया था। सम्पादकीय, पठनीय और मननीय था। श्री युत प्रो. 'उपयोगो लक्षणम्' जीव का यह लक्षण पूज्य आचार्य निहालचंद का 'जैनधर्म की वैज्ञानिकता' विज्ञान की कसौटी पर उमास्वामी ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है। उपयोग दो प्रकार | | पूरी तरह खरा उतरता है। का है- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। यह जीव का सामान्य लक्षण अन्य सभी सामग्री अति उत्तम है। पपौरा जी क्षेत्र के दर्शन है, परन्तु है जीव का ही लक्षण। फिर चाहे वह अपना ज्ञानदर्शन | पत्रिका हाथ में आते ही (परोक्ष से ही सही) हो गए। हो अथवा दूसरे का। जिसमें भी ज्ञानदर्शन होगा, वह नियम से ज्ञानमाला जैन, भोपाल जीव होगा, अजीव नहीं। आपकी निष्ठा, श्रम और समर्पण के कारण "जिनभाषित" जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- | - | ने जैनधर्म, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में प्रमाणिक ख्याति इन सात तत्त्वों का विवेचन आचार्यों ने जीव के अध्यात्मिक अर्जित की है। आशा है यह क्रम उत्तरोत्तर जारी रहेगा। विकास की दृष्टि से किया है तथा जहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों का विवेचन किया है, वहाँ प्रो. के.एल. जैन, टीकमगढ़ भौतिक दृष्टि से लोक और अलोक के स्वरूप को बतलाने के लिये आपके मनीषाप्रधान हाथों से शिल्पित एवं गरिमाप्रधान किया है। जीव दोनों स्थानों पर परिगणित है। क्योंकि जीव के मनीषा से सिंचित "जिनभाषित" का जून अंक मिला है, पढ़ने में विकास की ही सारी कहानी अभीष्ट है और वह कहाँ-कहाँ पाया अच्छा लगा। जाता है तथा उसका विरोधी तत्त्व कौन सा है ? इसकी भी जानकारी डॉ. कपूरचंद, डॉ. नीलम जैन, डा. स्नेहरानी जैन, श्री अपेक्षित है। ___ जब जीव के अध्यात्मिक विकास की चर्चा की जाती है सुरेश जैन आई.ए.एस., डॉ. सुरेन्द्र भारती एवं ब्र. संदीप जी सहित अनेक पृष्ठों की सामग्री, विविधवर्णी, रस/ज्ञान दे गई। तब वही जीव जीवतत्त्व के नाम से जाना जाता है और जब आपका सम्पादकीय 'द्रव्य और तत्व में भेदाभेद' पढ़कर, भौतिक सत्यापन किया जाता है तो वही जीव जीवद्रव्य के नाम से अब तक के मेरे अध्ययन को दिशा मिली, धन्यवाद। पं. रतन सम्बोधित होता है, किन्तु दोनों ही परिस्थितियों में जीव को अपने लाल बैनाड़ा भारी सूझबूझ के साथ शंकाओं के समाधान प्रस्तुत और पराये ज्ञान दर्शन के आधार पर "जिसमें मेरा ज्ञानदर्शन हो करते नजर आये, उन्हें विनम्र अभिवादन। वही जीवतत्त्व है। जिसमें मेरा ज्ञानदर्शन नहीं है, वे अजीव तत्त्व हैं।" ऐसा विभाजन करना जैन सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। | पूरे अंक का सरताज लेख 'निरंतर ज्ञानोपयोग' सर्वाधिक परम पद में जो स्थित हो, उसे परमेष्ठी कहते हैं । परमेष्ठी पाँच | | महत्वपूर्ण है, मैं उसके लेखक, संतशिरोमणि आचार्य विद्यासागरजी को नमोस्तु लिखता हूँ। हैं-- अरिहन्त परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी और साधु परमेष्ठी। यह संज्ञा गुणों के आधार पर अवश्य है, पृष्ठ-5 पर उनका उप-लेख भी शिक्षापूर्ण है। किन्तु पञ्च परमेष्ठियों में इन्हीं पाँच को नामाङ्कित किया गया है। सुरेश जैन सरल, जबलपुर सम्प्रति तीर्थंकर परमेष्ठी, गणधर परमेष्ठी आदि शब्दों का जून का अंक आद्योपांत पढ़कर प्रथम पृष्ठीय आवरण भी प्रचलन हो गया है। परम पद में स्थित होने के कारण ये भी सोनागिर जी देख-देख कर मन को अपार शांति मिली, परमेष्ठी हैं, इसमें कहीं भी और किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं "जिनभाषित" नहीं होता तो घर बैठे गगन चुम्बी मंदिरों, जैन है। फिर भी जब उपर्युक्त प्रकार से पञ्चपरमेष्ठी निर्धारित हैं और संस्कृति का 60 प्रतिशत लोगों को आभास ही नहीं होता, उनका उनमें तीर्थंकर परमेष्ठी, गणधर परमेष्ठी भी परिगणित हैं, तब फिर सोच ही नहीं जाता। अतः प्रबुद्ध वर्ग के लिये पत्रिका अच्छी इनकी परमेष्ठी के रूप में पृथक पहचान बनाने का औचित्य क्या खुराक है। सुरेश जैन मारौरा, शिवपुरी अगस्त 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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