Book Title: Jina Shashan Ke Samarth Unnayak
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री पद्मसागरसूरि नाम से परिजनों में प्रिय बने प्रेमचन्द ने शुरू से ही माता के बताए आदर्श जीवन-सूत्रों को बराबर ग्रहण कर लिया था. पतिदेव के स्वर्गवासी हो जाने के बाद कमर कस कर जीने तथा हर परिस्थिति को सहजता से झेलने की मानसिकता तो आपकी माता ने बना ही ली थी. माता भवानी देवी की इस विचारधारा ने बालक प्रेमचन्द को गहराई से प्रभावित किया. शैशव से ही प्रेमचन्द के कोमल कदम जीवन की कठोर डगर पर चलने के अभ्यस्त हो गए थे. निर्भीकता और सन्मार्ग पर निरंतर गतिशील जीवन - ये दोनों बहुमूल्य सूत्र, जो जनम के साथ ही प्रेमचन्द को माता से विरासत में मिले थे, आज तक की सफल जीवन यात्रा में पाथेय सिद्ध हुए हैं. इतना ही नहीं जैन शासन की प्रभावना के लिए इसे प्रकृति का अनमोल वरदान कहा जायेगा. ___ "होनहार बिरवान के होत चिकने पात." किन्तु ऐसे महान वृक्ष के लिए भूमि उर्वरक चाहिए. अजीमगंज एक ऐसा ही स्थान था, जहाँ बड़ी संख्या में सुसम्पन्न और सुसंस्कृत जैन परिवार थे. अनेक जिन मंदिर, उपाश्रय, विद्याशाला और उच्च कोटि के जैन शिक्षागुरु विद्यमान थे. श्री संघ में धार्मिक भावनाओं का एवं पारस्परिक सौहार्द का सुयोग उस जमाने में जैन संस्कृति को दिगन्त व्यापी बना रहे थे. ऐसे उर्वरक परिवेश से एक महामना युगपुरुष का आविर्भाव होना विधि के विधान में सुनिश्चित था. सौम्याकृति, विकसित पद्म सा मुखमंडल, ओजस्वी वाणी, और तेजस्वी नेत्र कुमार प्रेमचन्द की भावी भास्वरता के परिचायक थे. आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रेमचंद बचपन में जिस आसन और मुद्रा में बैठते थे वही आसन और भंगिमा आज भी प्रवचन पीठ पर विराजमान आचार्यश्री में पाई जाती है. कहावत है कि - गवादीनां पयोऽन्येद्युः सद्यो वा जायते दधि। क्षीरोदधेस्तु नाद्यापि महतां विकृतिः कुतः।। अर्थात् गाय-भैंस के दूध में कालान्तर में विक्रिया होने पर दही हो सकता है, परन्तु क्षीरोदधि में आज तक कोई विकृति नहीं होने पाई है. इसी प्रकार महापुरुषों में भी वही एकरुपता आजन्म रहती है. शुद्ध सुवर्ण For Private And Personal Use Only

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