Book Title: Jina Shashan Ke Samarth Unnayak
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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आचार्य श्री पद्मसागरसूरि नूतन वर्ष के मांगलिक-श्रवण के बाद मुमुक्षु प्रेमचन्द ने अपने जीवन शिल्पी आचार्यश्री के समक्ष अपनी अभिलाषा सविनय व्यक्त की. यदि विवेक संयति से व्यक्त होता हो, विनय विद्या से प्रगट होता हो और प्रभुत्व में स्नेह- सिक्त व्यवहार हो तो निश्चयपूर्वक समझें कि ये महर्षियों के ही चिह्न हैं.
भावी की महान् विभूति की पहचान करने के सामर्थ्य वाले चारित्र्यमूर्ति आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज ने प्रेमचन्दकुमार की भावनाओं का आदर करते हुए उनको कुछ दिन साथ रहने का सुझाव दिया. आचार्यश्री की पावन निश्रा में आप श्रमण जीवन के आचार-विचारों का लगन से अभ्यास करने लगे. आगे का धार्मिक-तात्त्विक अध्ययन भी आपने प्रारंभ कर दिया. दिन ब दिन वैराग्य भावना का रंग निखरने लगा. एक दिन आपके निर्वेदी जीवन को देखकर अध्यात्म योगी आचार्यश्री ने श्रीसंघ के पदाधिकारियों के समक्ष दीक्षा महोत्सव के आयोजन का प्रस्ताव रखा. साणंद का संघ जैसे इस महोत्सव की प्रतीक्षा में ही था. आचार्य प्रवर के प्रस्ताव को शिरोधार्य कर तत्काल महोत्सव की जोरदार तैयारियाँ आरम्भ कर दी गई.
ईसवी-सन् १९५५ के १३ नवम्बर की सुप्रभात हुई. साणंद का जैन संघ एक महान ऐतिहासिक घटना का साक्षी बनने को तत्पर था. जनमेदिनी उमड़ी, संयम के गीत गाये जाने लगे. शहनाइयों के सुर बजने लगे. साणंद के महाराजा ने अपने राजघराने की चाँदीमयी चार घोड़ों वाली बग्घी वरसीदान के वरघोड़े के लिये सहर्ष प्रदान की. माता भवानीदेवी के दुलारे कुमार प्रेमचन्द राजकुमार की भाँति सजाये गये. साणंद के इतिहास में प्रथम बार ऐसे ठाटबाट से भव्य जलूस निकला. जहाँ देखो वहाँ मात्र वीतराग के बतलाए अनूठे संयम मार्ग की भावभीनी अनुमोदना के सुहावने स्वर उठ रहे थे. शुभ घड़ी आयी. प्रेमचन्द के संकल्प की दृढ़ता ने विचारों को वास्तविकता का ठोस परिणाम दिया. बाजे-गाजे की तुमुल ध्वनि में नर-नारियों की अपार भीड़ के साथ यह दीक्षा जलूस एक विराट् धर्मसभा में परिवर्तित हुआ.
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