Book Title: Jina Shashan Ke Samarth Unnayak
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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आचार्य श्री पद्मसागरसूरि
.... १३ वे अपने पास दीक्षा लेने का आग्रह कर सकते थे. परन्तु आपने आग्रह किया कि अहमदाबाद में कई साधु महात्मा हैं, उनके पास जाओ और अपना आत्मकल्याण करो. ऐसी उत्कट निस्पृहता इस कलिकाल में सुनने को भी दुर्लभ है. किशोर लब्धिचन्द थे तो बाल मानस परंतु बुद्धि के धनी थे. वे आचार्यश्री की साधुता को और महानता को भाँप चुके थे. निश्चय अडिग था, अगर दीक्षा होगी तो इन गुरु भगवन्त के चरणों में ही होगी. इस प्रकार लब्धिचन्द के आध्यात्मिक जीवन-शिल्पी की महान् खोज पूर्ण हो रही थी. पुनः महान् गुरुवर को नमन कर लब्धिचन्द अहमदाबाद लौट आये. घर का परित्याग
वीतराग का पथ वीरों का पथ है. बुज़दिलों का यहाँ काम नहीं. बंगाली खून बाबू लब्धिचंद को निरन्तर चुनौती दे रहा था और प्रेरित कर रहा था, सद्भावना के साथ इस अमर पथ पर चल पड़ने के लिये. आचार्य भगवन्त के असरकारक शब्द श्रवणपथ में बार बार गूंज रहे थे 'संसार में आसक्त व्यक्ति के लिये संयम काँटों की डगर है. साधक तो काँटों को फूल समझते है. बिना कष्ट के इष्ट की प्राप्ति नहीं होती. सहन करने वाला ही अन्ततः सिद्ध बनेगा.' मुमुक्षु लब्धिचंद मित्र से अनुमति लेकर अजीमगंज लौटने के लिए रवाना हुए. रेल यात्रा प्रारम्भ हुई. सफर में अकेले एक कोने में बैठे लब्धिचंद की पैनी आँखे, रेल की खिड़की से प्रकृति का परिदर्शन कर रही थी. सद्गुरु की महान् उपलब्धि के कारण हृदय में अकथ्य तोष था, आनन्दानुभूति के साथ मनोमन्थन चल रहा था. जीवन का क्या अर्थ है ? शाश्वत सुख को छोड़कर मनुष्य तुच्छ और क्षणजीवी पदार्थों के पीछे अपना बहुमूल्य जीवन क्यों व्यर्थ गँवाता है, इत्यादि चिन्तन करते-करते वैराग्यवासित महामना लब्धिचंद तीन दिन की अविराम यात्रा के बाद अजीमगंज आए. घर आकर भी आप अपने में ही खोए हुए थे. कुछ आवश्यक व्यावहारिक कार्यों को निपटाकर मुमुक्षु लब्धिचन्द ने संयम ग्रहण करने की अपनी उत्तम भावना अजीमगंज के ही अपने एक निकटतम मित्र के सामने अभिव्यक्त की. साथ में यह भी कह दिया कि तुम इस रहस्य को अपने तक ही सीमित
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