Book Title: Jina Shashan Ke Samarth Unnayak
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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जिनशासन के समर्थ उन्नायक रखना. एक मित्र ही तो ऐसा होता है जिससे दिल की बात कही जा सकती है.
एक दिन सुबह जब माता श्रीमती भवानीदेवी के पवित्र चरण कमल पकड़े तो वे इतना ही जानती थी कि यह फिर कहीं भ्रमण के लिए जा रहा होगा. वे नहीं जानती थी कि उनका लाड़ला सदा सदा के लिए जा रहा है, प्रेमचंद अब दर्शन कभी नहीं देगा. शायद विधि के अटल विधान को यह ही मंजूर था. अनगिनत उपकारों से भीगी आँखों वाले प्रेमचन्द ने जननी और जन्मभूमि को शत शत प्रणाम किया और घर से निकल पड़े. जेब में कुछ रुपयों के अलावा हाथ खाली थे, पर जीवन को संयम की सुरभि से महकाने की अहोभावना अनुमोदनीय थी. हृदय में पूर्ण विश्वास
और मन की सुदृढ़ता अलौकिक थी. किसी गुर्जर कवि ने ललकारा है 'वीरनो मारग छे शूरानो कायरनुं नहि काम जोने' यहाँ कायरों को कतई स्थान नहीं है. वीरों का मार्ग कभी सरल नहीं होता. फिर यहाँ तो आन्तरिक शत्रुओं से युद्ध खेलना था. वीतराग के पथ पर
महात्माओं के चरित्र संसारियों की गिनती से परे होते हैं. जिस उम्र में सामान्य लोग गृहस्थी का मार्ग चुनते हैं वहीं पर सन्त पुरुष त्याग का मार्ग अपना कर स्व-पर कल्याण साधते हैं. लब्धिचन्द को भारत के पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक पहुंचना था. रेल मार्ग से तीन दिन की मुसाफरी करके दिल्ली-बड़ौदा होते हुए अहमदाबाद आए. वह दिन 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की याद दिलानेवाला ज्योति पर्व दीपावली का दिन था. मित्र ने घर आये महेमान को मिष्ठान्न भोज खिलाकर दूसरे जन्म (दीक्षा) के पूर्व ही सगुन कराये. मानो कि साजी का प्रारंभ यहाँ से ही हो गया था. मित्र को तो कुछ मालूम ही नहीं था किन्तु प्रकृति को माँ की तरह सब पहले से ही ज्ञात था. अनन्त लब्धिनिधान श्री गौतमस्वामी के कैवल्य प्राप्ति से प्रवर्तमान नूतन वर्ष के प्रारंभ के शुभ दिन प्रभात वेला में आप साणंद पहुँचे. अपने जीवन निर्माता आचार्यदेव श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. के सान्निध्य में पहुँच कर आपको अपार संतोष हुआ. बाती को घी मिला. वैराग्य की भावना में तीव्रता आयी.
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