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(यहाँ यदि मोक्षा चाहती तो अपनी सास द्वारा लगाए गए आरोपों का प्रतिकार भी कर सकती थी । परंतु जयणा द्वारा बचपन से दिए गए संस्कारों एवं अंतिम हितशिक्षा के शब्द उसके हृदय में आज भी जागृत थे। वह जानती थी कि ऐसी परिस्थिति में मौन रहना ही श्रेष्ठ है। उसके शब्द छोटी-सी बात को पहाड़ जितना बड़ा बना देने में मदद करते । जिससे घर का वातावरण बिगड़ते देर नहीं लगती। अतः अपने संस्कारों का परिचय देते हुए मोक्षा ने मौन पूर्वक सब कुछ सहन करके वास्तव में नारी सहनशीलता की मूर्ति होती है, इस बात को सार्थक कर दिया।
इस प्रकार चिंतित अवस्था में सोने के कारण मोक्षा दूसरे दिन सवेरे उठने में लेट हो गई। उस दिन मोक्षा के रसोई घर में पहुँचने से पहले विधि रसोई घर में पहुँच गई। मोक्षा भी जल्दी-जल्दी काम में लग गई। तभी बाहर से आवाज़ आई ....)
विवेक : विधि! जल्दी से चाय लाओ, मुझे ऑफिस के लिए लेट हो रहा है।
(तब मोक्षा ने विधि के हाथों में गरमा-गरम चाय का कप दिया। संयोगवश विधि उसे पकड़े उसके पहले मोक्षा ने कप छोड़ दिया और गरमा-गरम चाय मोक्षा और विधि पर गिर गई तथा कप प्लेट भी टूट गये। तब ...)
विधि : मॉम ... मॉम... मॉम ...
सुशीला : क्या हुआ ? अरे ये कप किसने तोड़ा ? बेटा तुझे कही लगी तो नहीं ना ?
विधि: मॉम! गरम-गरम चाय से मेरा पैर जल गया। आsss
सुशीला :
(मोक्षा बरनॉल लेने गई। इतने में घर के बाकी लोग भी वहाँ आ गये।)
': मोक्षा! खड़ी खड़ी देख क्या रही हो ? जा जाकर बरनॉल लेकर आ ।
विधि : मॉम! देखा आपने, भाभी ने कल शाम का गुस्सा अब निकाला है। भैय्या ! आप भी देख लो, फिर मत कहना कि मैं झूठ बोल रही थी।
(इतने में मोक्षा बरनॉल लेकर आई और विधि को लगाने लगी, तब सुशीला ने उसके हाथ से बरनॉल खींच लिया।)
सुशीला : जा-जा! तू क्या लगायेगी, पहले तो जान -बुझकर चाय गिरा दी और अब दवा लगाने आई है। मोक्षा : मम्मी! मैंने जान-बुझकर चाय नहीं गिराई । मैंने विधि को कप पकड़ाया था, पर उन्होंने पकड़ा नहीं और मैंने भी छोड़ दिया ।
विधि : देखा भैय्या देखा! कैसे मुझ पर गलत इल्ज़ाम लगाया जा रहा है।
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