Book Title: Jainism Course Part 02
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 145
________________ कराने वाले इस विवाह को धिक्कार हो । नरक के द्वार रुप यह विवाह मुझे नहीं करना । जगत के सारे जीव इसी तरह बंधन में बंधे है और अंत में कर्मराजा के शिकार बनेंगे। परंतु मुझे अब इन बंधनों में नहीं फँसना।” तत्क्षण सारे पशुओं को मुक्त करवाकर उन्होंने रथ को वापस मोड़ने का आदेश दिया। उनकी यह चेष्टा देख सभी को अत्यंत आश्चर्य हुआ। शिवादेवी, समुद्रविजय, श्रीकृष्ण, उग्रसेन सहित सभी स्वजनों ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की। परंतु नेमकुमार अपने निर्णय पर अडिग रहें। बारात को पुन: लौटते देख राजीमती उसी समय बेहोश हो गई। परम सुंदरी राजीमती जैसी युवती को शादी किये बिना ही त्याग देना यह नेमिकुमार का प्रबल आत्मबल था । इस प्रकार एक छोटे से निमित्त से एक पल का विलंब किए बिना सारे भोग विलास का त्याग कर वे विरक्त बन वहाँ से चल पड़े। नेमकुमार की दीक्षा तथा केवलज्ञान: तोरण पुन: फिरने के पश्चात् नव लोकांतिक देवों ने आकर परमात्मा से तीर्थ स्थापना करने की विनंती की। अवधिज्ञान से अपनी दीक्षा का अवसर जानकर नेमिकुमार ने वर्षीदान देना शुरु किया। सांवत्सरिक दान के पश्चात् श्रावण सुद छट्ठ के दिन 'उत्तरकुरा' नामक पालखी में बैठकर अनेक देवताओं और मनुष्यों के साथ नेमिकुमार रेवत उद्यान में पहुँचे। वहाँ अशोकवृक्ष के नीचे अपने हाथों से सर्व अलंकार उतारकर पंचमुष्टि लोच किया। चौविहार छट्ठ (दो उपवास) पूर्वक चित्रा नक्षत्र के साथ चंद्रमा का योग होने पर मात्र एक देवदुष्य वस्त्र धारण कर नेमिकुमार ने एक हज़ार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहण की। उसी समय प्रभु को मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् चौपन दिन तक छंद्मस्थ अवस्था में विचरण करते हुए गिरनार पर्वत के सहस्राम्र वन में पधारें। वहाँ सर्व घाति कर्मों का क्षय कर आसोज वद अमावस के दिन क्षपक5- श्रेणी पर आरूढ़ होकर नेमिनाथ प्रभु ने केवलज्ञान को प्राप्त किया। देवों ने समवसरण की रचना की । वनपालक ने श्री कृष्ण को वधामणी दी। श्री कृष्ण अपनी प्रजा के साथ प्रभु को वंदन करने आए। वहाँ वरदत्त प्रमुख दो हज़ार राजाओं ने दीक्षा ली। इस तरह प्रभु ने तीर्थ की स्थापना की। नेमिनाथ प्रभु एवं राजीमती के 8 भवः इस तरफ राजीमती भी प्रभु के वियोग में दुःखी बनकर, विलाप करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगी। एक दिन श्री कृष्ण ने समवसरण में प्रभु से प्रश्न पूछा, “स्वामी ! राजीमती को आप पर इतना मोह क्यों है?” तब परमात्मा ने कहा, "हे कृष्ण ! राजीमती का मेरे साथ पिछले आठ भवों का सम्बन्ध है । (1) पहले भव में मैं धन नामक राजा हुआ तब वह मेरी धनवती नाम की रानी थी। (2) दूसरे भव में हम दोनों पहले 117

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