Book Title: Jainism Course Part 02
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 160
________________ सुनंदा देखती ही रह गई। तब सुनंदा के मनोभाव को पहचानते हुए उसकी सखी ने पूछा- “सखी! यह दृश्य देखकर तुझे क्या विचार आया ?" सुनंदा ने कहा- “यही की मुझे भी कोई इसी तरह प्यार करें। यह दृश्य देखकर मैं समझ गई हूँ कि सारे पुरुष क्रूर नहीं होते। इसलिए मैंने पुन: शादी करने का फैसला कर दिया है। सखी! तुम माताजी-पिताजी तक यह समाचार पहुँचा देना।" ___इस बात को एक सप्ताह बीत गया। सुनंदा नित्य ही झरोखे में बैठकर राजमार्ग से गुजरने वाले युवकों को देखकर अपना मन बहलाती। एक संध्या को उसी नगर के कोटीश्वर सेठ वसुदत्त के चार पुत्र में से सबसे छोटा पुत्र रुपसेन राजमहल के सामने वाली पान की दुकान पर पान खाने आया। सुनंदा की दृष्टि रुपसेन पर पड़ी और योगानुयोग रुपसेन की दृष्टि भी सुनंदा पर पड़ी। उसे पहचानते देर नहीं लगी कि यह रुप की रानी राजकुमारी सुनंदा है। वह मन ही मन सुनंदा को पाने का ख्वाब देखने लगा और इधर रुपसेन के मनमोहक रुप को देखकर सुनंदा भी उस पर आसक्त हो गई। तुरंत ही उसने अपनी सखी से उस नवयुवक का परिचय लाने को कहा। सखी ने पूछताछ कर सुनंदा को बताया कि, “यह नगर सेठ का छोटा पुत्र रुपसेन है।" अपने मनोभाव को व्यक्त करने के लिए सुनंदा ने एक पत्र लिखकर अपनी सखी के हाथों रुपसेन तक पहुँचाया। रुपसेन ने एकांत में वह पत्र पढ़ा। प्रियतम! पहली बार देखते ही मैं आपको अपना दिल दे बैठी हूँ। शायद आप भी मेरे ही ख्यालों में खोये होंगे? यदि आप रुप के सागर हो तो मैं सौन्दर्य की सरिता हूँ। जिस दिन सागर सरिता का मिलन होगा उस दिन हमारा अहोभाग्य माना जाएगा। मैं चाहती हूँ प्रतिदिन इसी समय आप मुझे यहीं आकर अवश्य दर्शन दे। मैं चकोर की तरह चन्द्र सम आपकी राह देखूगी। यदि आपने मुझे दर्शन नहीं दिये तो मैं अन्न-जल त्याग कर दूंगी। आपकी याद में तड़पती....सुनंदा पत्र पढ़ते ही रुपसेन आनंदित हो उठा। उसे लगा अनायास ही यह सुन्दर अवसर हाथ आ गया। उसने भी एक प्रेमपत्र लिखकर सुनंदा की अंतरंग सखी को दे दिया। सखी पत्र लेकर सुनंदा के पास आई एवं पत्र सुनंदा को दे दिया। सुनंदा ने पत्र खोलकर पढ़ना प्रारम्भ किया - . प्यारी-प्यारी प्रियतमा...! आज मैं विधाता को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि उसने तुम जैसी सौंदर्य की साम्राज्ञी मेरे लिए बनाई। वास्तव में तुम सौन्दर्य की सरिता हो, प्रेम की प्रतिमा हो, कोमलता की कविता हो, तुम्हें पाकर मैं धन्य बन जाऊँगा। तुम्हारा पत्र पाने के बाद मेरी हालत जल बिन मछली के जैसी हो गई है। मैं तुम्हारा मिलन चाहता हूँ। पता नहीं विधाता हमें कब मिलाएगा ? मैं प्रतिदिन संध्या को अपनी चकोरी से मिलने चंद्र बनकर

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