Book Title: Jainism Course Part 02
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 164
________________ गया। एक वक्त ऐसा था जब रुपसेन के दर्शन नहीं होने पर सुनंदा ने अन्न-जल त्याग करने की प्रतिज्ञा ली थी और आज छ:-छ: भव में वही उसकी मौत का कारण बनती गई। हृष्ट-पुष्ट हिरण का माँस पकाकर लाया गया। राजा और रानी चावपूर्वक उसके माँस का भक्षण करने लगे। अब तक तो सुनंदा मात्र रुपसेन की मृत्यु का कारण ही बनती रही। परंतु कर्म की विडंबना तो देखो, आज वही रुपसेन की प्रेमिका बड़े ही चावपूर्वक उसके शरीर के माँस का स्वाद उठा रही है। तभी भाग्योदय से, पूर्वकृत प्रबल पुण्योदय से या यूँ कहे तो रुपसेन की प्रगति में निमित्त भूत ऐसे त्रिकालज्ञानी दो मुनि भगवंत का उसी उद्यान में पदार्पण हुआ। राजा-रानी को माँस भक्षण करते देख उन्होंने मस्तक धुनाया। तब राजा ने हाथ जोड़कर मुनि भगवंतों से पूछा, “हे मुनिवर! माँस-भक्षण करना हमारे कुल का आचार है। आपने हमें भोजन करते देख मस्तक धुनाया है। आप जैसे ज्ञानियों की यह चेष्टा असाधारण नहीं होगी जरुर इसके पीछे कोई गंभीर कारण है। हे गुरुभगवंत! मेरी शंका का निवारण कीजिए।" तब मुनिवर बोले-“राजन् ! मात्र मन से किया गया पाप भी कितना भयंकर परिणाम देने वाला होता है। जिसने सुनंदा को प्राप्त करने के लिए अपने छ: छ: भव बर्बाद कर दिए। आज उसी के माँस का भक्षण आप लोग कर रहे हो। कर्म की विडंबना तथा विषयवासना की भयंकरता का प्रत्यक्ष उदाहरण देखकर मेरा मस्तक धून गया।" आश्चर्य चकित होकर राजा ने पूछा “गुरुदेव! किस जीव ने सुनंदा के पीछे छ: छः भव बर्बाद किए? यह माँस तो हिरण का है मुझे कुछ समझ में नहीं आया। जरा खुलकर बताने की कृपा करें।" “राजन् ! यह बात सुनंदा रानी के जीवन से जुडी हुई है इसलिए सर्व प्रथम आपको इन्हें अभयदान देना होगा तो ही मैं बता सकता हूँ, अन्यथा नहीं।" राजा ने उसी क्षण कहा, “आप फरमाइए प्रभु! मैं रानी सुनंदा को अभयदान देता हूँ।" मुनिवर बोले “राजन् ! सुनंदा जब राजकुमारी थी तब उसी नगर के सेठ के पुत्र रुपसेन के साथ इन्हें प्रेम हो गया था तथा रुपसेन भी इनके रुप में मुग्ध बन गया था। क्या यह सच है सुनंदा रानी?" तब सुनंदा लज्जित होकर बोली “हाँ प्रभु, इतना ही नहीं मैंने एक बार उससे भोग विलास कर अपने शील का खंडन भी किया था। तब मुनिवर बोले “नहीं सुनंदा तुम्हें गलतफहमी हुई है। उस रात तुम जिसे रुपसेन समझ रही थी वह वास्तव में रुपसेन नहीं बल्कि महाबल जुआरी था। रुपसेन तो तुम्हें मिलने के लिए आ रहा था और इतने में तो किसी जीर्ण मकान की दीवार उस पर गिर पड़ी और वह वही मृत्यु की शरण में चला गया।" मुनि की बात सुनते ही सुनंदा के आश्चर्य और खेद का पार नहीं रहा। "हे प्रभु! यह क्या अनर्थ हो गया मुझसे ? प्रभु वहाँ से रुपसेन मरकर कहाँ गया?" “सुनंदा आगे की बात सुनकर तो तुम्हें अपार दुःख

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