Book Title: Jainism Course Part 02
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 177
________________ (11) सेनापतिरत्न - गंगा-सिंधु के किनारे 4 खण्ड जीतता है। (12) गृहपतिरत्न - घर के रसोई आदि काम करता है। (13) वर्धकी (सुथार) रत्न - घर बनाता है तथा वैताढ्य पर्वत की गुफा में उमग्ना एवं निमग्ना नदी पर पुल बांधता है। (14) स्त्रीरत्न - अत्यंत अद्भुत रुपवती स्त्री चक्रवर्ती के भोगने योग्य होती है। (नोट : सुंदरी -यह भरत की स्त्री रत्न नहीं थी। भरतचक्री का स्त्री रत्न नमि-विनमी की बहन सुभद्रा थी। स्त्रीरत्न मरकर अवश्य छट्ठी नरक में जाती हैं। सुंदरी तो मोक्ष में गई है।) 14 रत्नों में से चक्र, छत्र, दण्ड एवं खड्ग ये 4 रत्न आयुधशाला में उत्पन्न होते हैं। चर्म, मणि एवं काकीणी रत्न राजभण्डार में उत्पन्न होते हैं। सेनापति, गृहपति, पुरोहित एवं सुथार ये रत्न राजधानी में उत्पन्न होते हैं। स्त्रीरत्न राजकुल में उत्पन्न होता है। हस्ती एवं अश्वरत्न वैताढ्य पर्वत के पास उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती की षट्खण्ड साधना . उत्कट पुण्य के योग से जीव चक्रवर्ती की पदवी प्राप्त करता है। योग्य काल में चक्ररत्न की उत्पत्ति के बाद चक्रवर्ती दिग्विजय के लिए जाते हैं। तब प्रथम खण्ड से चौथे खण्ड में जाने के लिए वैताढ्य पर्वत की 50 योजन लम्बी तमिस्रा नामक गुफा का द्वार दण्ड रत्न से खोलते हैं। हाथी के मस्तक पर मणिरत्न होने से गुफा प्रकाशित बनती है। गुफा की दीवार पर चक्रवर्ती काकीणी रत्न से मंडल का आलेखन 1-1 योजन की दूरी पर करते हैं। इस मंडल का प्रकाश 1 योजन तक फैलता हैं। जिससे ये गुफाएँ चक्रवर्ती के काल में सदा सूर्य के समान प्रकाशित रहती है। वहाँ से चौथे (4) खण्ड में जाकर चक्रवर्ती म्लेच्छों के साथ भयंकर युद्ध में विजय प्राप्त करते हैं। गंगा-सिंधु नदी के दूसरे किनारे पर रहे 2,3,5,6 खण्ड को चक्रवर्ती के आदेश से सेनापति जीतकर आते हैं। इस प्रकार छ: खण्ड जीतकर चौथे (4) खण्ड में रहे हुए रत्नमय ऋषभ कूट पर चक्रवर्ती अपना नाम लिखने जाते हैं। परन्तु ऋषभ कूट पर नाम लिखने की जगह न होने से दूसरों का नाम मिटाकर अपना नाम लिखते हैं। भरत चक्री को उस समय अतिशय दुःख हुआ कि भविष्य में बनने वाले चक्रवर्ती मेरा भी नाम मिटा देंगे अतः उनकी आँखों में पानी आ गया। नाम लिखकर खण्डप्रपाता नामक वैताढ्य पर्वत की दूसरी गुफा से पुन: मध्य खण्ड में आते हैं। इस गुफा में भी मंडल का आलेखन करते हैं। मध्य खण्ड को जीतते-जीतते जब गंगा एवं लवण समुद्र के संगम स्थान रुप मागध तीर्थ पर आते हैं। उस समय चक्रवर्ती के पुण्य से आकर्षित नव-निधान पाताल मार्ग से होकर चक्रवर्ती की राजधानी में आते हैं।

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