Book Title: Jainism Course Part 02
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 156
________________ लोक के महाराज जिनेश्वरदेव की सेवा में हो। अत: उनके वेष के प्रति वफादार रहना । मर जाना किन्तु भ्रष्ट | मत होना। जैनशासन-संघ ही तेरा परिवार है, तेरी गलती से उसकी निंदा न हो इसका ख्याल रखना। 6. वैराग्य के विचार में मस्त मुझे कोशा के रुप में वैतरणी नदी दिखाई देती थी। उसका नृत्य श्मशान में डायन का नृत्य हो रहा हो ऐसा मुझे महसूस होता था। उसके गहने फाँसी के फंदे लग रहे थे। उसके हास्य में रोने की आवाज़ सुनाई देती थी। मुझे लग रहा था यदि मैं इस चक्कर में फंस गया तो कहीं का नहीं रहूँगा। 7. मुझे दशवैकालिक सूत्र में बताए गए अगन्धन कुल के साँप का ख्याल आता जो अग्नि में जल जाने के लिए तैयार हो जाते, किन्तु वमन किये हुए ज़हर को वापस नहीं पीते थे। 8. मल्लिनाथ भगवान ने उन राजाओं को जिस प्रकार स्त्री की अशुचि काया का ख्याल कराया था, राजीमती ने रथनेमि को जो उपदेश दिया था, जम्बू स्वामी ने अपनी आठ पत्नियों को जो दृष्टांत दिये थे, वे सब मेरे दिमाग में चित्र -परंपरा के रुप में उमड़ पड़ते थे। ____9. एक बार के वासना के विचार मात्र से वीर्यनाश और शारीरिक-मानसिक तनाव से जो शरीर इन्द्रिय, मन और आत्मा को नुकसान होता है वह मुझे ज्ञात था। इसलिए प्रतिदिन ऐसी अनेक विचारधाराओं से मैं अपनी आत्मा को सुरक्षित बना देता था, जिससे कोशा के सभी प्रयत्न निष्फल जाते। सिंह गुफा वासी मुनि - सचमुच धन्य है आपको! आपके भावों को। आप जीत गए और मैं हार गया। इस प्रकार सभी स्थूलिभद्र मुनि की प्रशंसा करने लगे। समय अपनी गति से बहने लगा। भवितव्यता के योग से जगत में परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं। उस समय 12 वर्ष का भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल के कारण साधुओं को भिक्षा भी दुर्लभ बनती गई। परिणामस्वरुप भूख से पीड़ित अनेक मुनि स्वाध्याय करने में असमर्थ बनते गए। श्रुत व सिद्धांत का विस्मरण होने लगा। अत: पाटलीपुत्र नगर में समस्त श्रमण संघ इकट्ठा हुआ। जिस मुनि को जिस सूत्र का जो अध्ययन याद था, उसे इकट्ठा किया गया। इस प्रकार श्रीसंघ ने मिलकर ग्यारह अंगों का संयोजन किया। . उस समय 12वें दृष्टिवाद को जानने वाले एक मात्र भद्रबाहु स्वामी ही थे, जो नेपाल देश में 'महाप्राण' ध्यान कर रहे थे। अन्य साधुओं को दृष्टिवाद का अभ्यास करवाने के लिए श्रीसंघ ने दो मुनियों को तैयार कर भद्रबाहुस्वामी के पास भेजा। उन दोनों मुनियों ने भद्रबाहु स्वामी को प्रणाम करके कहा"गुरुदेव ने आपको पाटलीपुत्र नगर में पधारने का आदेश दिया हैं"। भद्रबाहु स्वामी ने कहा - "अभी मैं महाप्राण ध्यान कर रहा हूँ अत: अभी मैं वहाँ नहीं आ सकूँगा।" उन

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