Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 28
________________ कर्ता ३. निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भावकी कथंचित् " परिणामके फलको नहीं जानते हुए भी पुद्गल द्रव्यका जीवके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है ।७१। स.सा./आ./३२३/क २०० नास्ति सर्वोऽपि संबन्ध' परद्रव्यात्मतत्त्वयो । कत कर्मत्वसबन्धाभावे तत्कतृता कुत' १२००। परद्रव्य और आत्मव्यका ( कोई भी) सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार कतृ कर्मत्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे आत्माके परद्रव्यका कतृत्व कहाँसे हो सकता है। पं/का./त प्र./६२ कर्म खलु...स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकान्तरमपेक्षते। एवं जीवोऽपि...स्वयमेव षटकारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते। अतः कर्मण' कर्तुर्नास्ति जीवः कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्मकर्तृ निश्चयेनेति ।-कर्म वास्तवमें षट् कारकी रूपसे वर्तता हुआ अन्य कारकको अपेक्षा नहीं रखता। उसी प्रकार जीव भी स्वयमेव षट्कारक रूपसे बर्तता हुआ अन्य कारकको अपेक्षा नहीं रखता। इसलिए निश्चयसे कर्मरूप कर्ताको जीवकर्ता नहीं है और जीवरूप कर्ताको कर्मकर्ता नहीं है। स्वरूपको नवीन नहीं बना सकता ।१८। जो परिणाम एक द्रव्यका है वह दूसरे द्रव्यका परिणाम नहीं हो सकता। अन्यथा संकर दोष आ जानेसे निजदव्य और अन्य द्रव्यकी व्यवस्था ही न बन सकेगी।१६। स सा./आ./१०४ यथा कलशकार', 'द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुन' परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति तथा पुद्गलमयज्ञानावरणादौ कर्मणि... वात्मा न खल्बाधत्ते-द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वादुभयं तु तस्मिन्ननादधान कथं नु तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् । तत. स्थित खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता। जैसे कुम्हार द्रव्यान्तर रूपमें संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तुको परिणमन करना अशक्य होनेसे अपने द्रव्य और गुण दोनोंको उस घटरूपी कर्ममे न डालता हुआ परमार्थ से उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता। इसी प्रकार पुद्गलमयी ज्ञानावरणादि कर्मोंका, द्रव्यान्तररूपमें संक्रमण किये बिना अन्य वस्तुको परिणमित करना अशक्य होनेसे अपने द्रव्य और गुण दोनो को उन ज्ञानावरणादि कर्मों में न डालता हुआ वह आत्मा परमार्थ से उसका कर्ता कैसे हो सकता है। इसलिए आत्मा पुद्गल कर्मोंका अकर्ता सिद्ध हुआ ( स.सा/आ./७५,८३) स.सा./आ /३७२ एवं च सति मृत्तिकाया. स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकार' कुम्भस्योत्पादक एव; मृत्तिकैव कुम्भकारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोत्पद्यते । एवं च सति सर्वद्रव्याणां न निमित्तभूतवान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येवः सर्वद्रव्याण्येव निमितभूतद्रव्यान्तरस्वभावमस्पृशन्ति स्वस्वभावेन स्वपरिणामभावेनोत्पद्यन्ते । अतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै कुप्याम ।-मिट्टी अपने स्वभावको उल्लंघन नही करती इसलिए कुम्हार घडे का उत्पादक है ही नहीं; मिट्टी ही कुम्हारके स्वभावको स्पर्श न करती हुई अपने स्वभावसे कुम्भभावसे उत्पन्न हुई। इसी प्रकार सर्व पोके निमित्तभूत अन्य द्रव्य अपने परिणामोके ( अर्थात् उन सर्व द्रव्योंके परिणामों के ) उत्पादक है ही नहीं; सर्व द्रव्य हो निमित्तभूत अन्यद्रव्यके स्वभावको स्पर्श न करते हुए अपने स्वभावसे अपने परिणामभावसे उत्पन्न होते हैं। इसलिए हम जीवके रागादिका उत्पादक परदव्यको नही देखते, कि जिस पर कोप करे। स,सा /आ./२६२ य एव हिनस्मीत्यह काररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसाय' स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतु , निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्य त्वात् ।="मै मारता हूँ" ऐसा अहंकार रससे भरा हुआ हिसाका अध्यवसाय ही निश्चयसे उसके बन्धका कारण है, क्योंकि निश्चयसे परका भाव जो प्राणोंका व्यपरोप वह दूसरेसे किया जाना अशक्य है। ४. एक द्रव्य दूसरेको निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं पं का./मू./६० भावो कम्मणि मित्तो कम्म पुण भावकारणं भवदि । ण दु तेसिं खलु कत्ताण विणा भूदा दु कत्तार ६० जीवभावका कर्म निमित्त है और कर्मका जीव भाव निमित्त है। परन्तु वास्तव में एक दूसरेके कर्ता नहीं हैं। कर्ता के बिना होते हों ऐसा भी नहीं है। (क्योंकि आत्मा स्वयं अपने भावका कर्ता है और पुद्गल कर्म स्वयं अपने भावका ६१-६२) गो. जी./म./५७०/१०१५/१ ण य परिणमदि सयं सो ण या परिणामेइ अण्णमण्णेहि । विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेदू ।५७०। काल द्रव्य स्वयं अन्य द्रव्य रूप परिणमन करता नहीं, न ही अन्य द्रव्यको अपने रूप परिणमाता है। नाना प्रकार परिणामों रूप से द्रव्य जब स्वयं परिणमन करते है, तिनको हेतु होता है अर्थात उदासीनरूपसे निमित्त मात्र होता है। स. सा/आ/८२ जीवपुद्गलयो' परस्पर व्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणापि जीवपरिणामानां क्त कर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभावेनैव द्वयोरपि परिणाम । - जीव और पुद्गलमें परस्पर व्याप्य व्यापकभावका अभाव होनेसे जीवको प्रदगल परिणामोके साथ और पुद्गल कर्मको जीव परिणामों के साथ, कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्त नैमित्तिकभावका निषेध न होनेसे, परस्पर निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोके परिणाम ( होता है)। पं.ध./पू/५७६ इदमत्र समाधानं कर्ता यः कोऽपि सः स्वभावस्य । पर भावस्य न कर्ता भोक्ता वा तन्निमित्तमात्रेऽपि । -जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभावका ही कर्ता है किन्तु परभावमे निमित्त होनेपर भी, परभावका न कर्ता है और न भोक्ता। स.सा/आ /३५५/क २१३ वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो, येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरो परस्य का, कि करोति हि बहिर्चउन्नपि ।२१३१- इस लोकमे एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, इसलिए वास्तवमे बस्तु वस्तु ही है-यह निश्चय है। ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु अन्य वस्तुके बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है । स सा /आ./७८-७६ प्राप्य विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य सुरखदु खादिरूपं पुद्गलकर्मफलं जानतोऽपि ज्ञानिनः पुदगलेन सह न कतृ कर्मभाव. १७८1. जीवपरिणाम स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानत. पुद्गलदव्यस्य जीवेन सहन कर्तृकर्मभाव. 1981 प्राप्य विकार्य और निर्वर्ण्य ऐसा जो व्याप्य लक्षणबाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले उस ज्ञानीका, पुद्गलकमके फल को जानते हुए भी कर्ताधर्मभाव नहीं है ।७८। (और इसी प्रकार ) अपने परिणामको, जोधके परिणामको तथा अपने पं. घ./उ./१०७२-१०७३ अन्तर्दृष्टया कषायाणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्तने मित्तिको भाव' स्यान्न स्याजोवकर्मणो । १०७२। यतस्तत्र स्वयं जीवे निमित्ते सति कर्मणाम् । नित्या स्यात्कता चेति न्यायान्मोक्षो न कस्यचित ।१०७३। अन्तष्ठिसे कषायोका और कर्मोंका परस्परमें निमित्तनैमित्तिकभाव है किन्तु जीव (द्रव्य ) तथा कर्मका नही है ।१०७२। क्योंकि उनमेसे जीवको कर्मोका निमित्त माननेपर जीवमे सदैव ही क्तृत्वका प्रसंग आवेगा और फिर ऐसा होनेपर कभी भी किसी जीवको मोक्ष नही होगा ।१०७३। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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