Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ कर्ता ३. निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भावकी कथंचित... नहीं, क्योंकि, लोकमे सूर्य, चन्द्र, खद्योत, अग्नि, मणि और नक्षत्र आदि ऐसे अनेक पदार्थ है जिनमे उभय भाव देखा जाता है। उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए।" ६. व्यवहारसे भिन्न वस्तुओंमें भी कर्ता कम व्यपदेश किया जाता है स.सा./मू /8८ वबहारेण दु आदा करेदि घडपडरथाणि दव्याणि । कर णाणि य कम्माणि य णोकम्मागीहि विविहाणि ।६८ =व्यवहारसे अर्थात लोकमे आत्मा घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओको, इन्द्रियोंको, अनेक प्रकारके क्रोधादि द्रव्य कर्मोको और शरीरादि नोकर्मीको करता है । (द्र.सं./मू /८)। म.च.बृ /१२४-१२५ देहजुदो सो भुत्ता भुत्ता सो चेव होइ इह कत्ता। कत्ता पुण कम्मजुदो जीओ संसारिओ भणिओ ।१२४। कम्मं दुविहवियप्पं भावसहावं च दबसम्भावं। भावे सो णिच्छायदो कत्ता ववहारदो दवे ।१२३॥ - देहधारी जीव भोक्ता होता है और जो भोक्ता होता है वही कर्ता भी होता है। जो कर्ता होता है वह कर्म संयुक्त होता है । ऐसे जीवको संसारी कहा जाता है ।१२४। वह कर्म दो प्रकारका है-भाव-कर्म और द्रव्य-कर्म । निश्चयसे वह भावकर्मका कर्ता है और व्यवहारसे द्रव्य कर्मका /१२५/ (द्र.स/म./- ) (और भी देखो कारण/III/५)। प्र.सा./त.प्र/३० संवेदनमपि कारणभूतानामर्थानां कार्यभूतान समस्त ज्ञयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपचर्य ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते। = संवेदन (ज्ञान) भी कारणभूत पदार्थोके कार्यभूत समस्त ज्ञ याकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्यमे कारणका उपचार करके यह कहनेमें विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है। पं.का./त.प्र./२७/५८ व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कतत्वात्कर्ता । व्यवहारसे जीव आत्मपरिणामोके निमित्तसे होनेवाले कर्मोको करनेसे कर्ता है। आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण। इसलिए (अर्थात् अपने परिणामों रूप कर्मसे अभिन्न होनेके कारण ) आत्मा परमार्थतः अपने परिणामस्वरूप भावकर्मका ही कर्ता है, किन्तु पुद्गलपरिणामात्मक द्रव्य कर्मका नहीं। इसी प्रकार परमार्थ से पुद्गल अपने परिणामस्वरूप द्रव्यकर्मका ही कर्ता है किन्तु आत्माके परिणामस्वरूप भावकर्मका नहीं। स.सा./आ /८६ यथा किल कुलाल. कलशसंभवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तम् - क्रियमाणं कुर्वाण. प्रतिभाति, न पुनः कलशकरणाहंकारनिर्भरोऽपि...कलश-परिणामं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तं . क्रियमाणं कुर्वाण' प्रतिभाति; तथारमापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलमज्ञानादारमपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तम् - क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभातु, मा पुन पुद्गलपरिणामकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणाम पुद्गलादव्यतिरिक्त क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु = जैसे कुम्हार घड़ेकी उत्पत्तिमें अनुकूल अपने व्यापार परिणामको जो कि अपनेसे अभिन्न है, करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु घडा बनानेके अहंकारसे भरा हुआ होने पर भी अपने व्यापारके अनुरूप मिट्टीसे अभिन्न मिट्टीके घट परिणामको करता हुआ प्रतिभासित नही होता; उसी प्रकार आत्मा भी अज्ञानके कारण पुद्गल कर्मरूप परिणामके अनुकूल, अपनेसे अभिन्न, अपने परिणामको करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु पुद्गलके परिणामको करनेके अहंकारसे भरा हुआ होते हुए भी, अपने परिणामके अनुरूप पुद्गलके परिणामको जो कि पुद्गलसे अभिन्न है, करता हुआ प्रतिभासित न हो। ( स.सा /आ/८२) स.सा. आ./८६/क ५३-५४ नोभौ परिणामतः खलु परिणामो नोभयो. प्रजायेत । उभयोन परिणति स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ।५३। नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य। नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ५४=जो दो वस्तुएँ हैं वे सर्वथा भिन्न ही है, प्रदेश भेद वाली ही है। दोनो एक होकर परिणमित नही होती, एक परिणामको उत्पन्न नहीं करती और उनकी एक क्रिया नहीं होती. ऐसा नियम है। यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्योंका लोप हो जाये ।५३। एक द्रव्यके दो कर्ता नहीं होते और एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते, तथा एक द्रव्यकी दो क्रियाएँ नहीं होती, क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता ॥५४॥ ३. निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भावकी कथंचित् सत्यार्थता असत्यार्थता १. वास्तवमें व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्ममें इष्ट है स.सा/आ/७५/क ७६ व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृ कर्म स्थिति'।== व्याप्यव्यापक भावके अभावमे कर्ता कर्मकी स्थिति कैसी । प्र.सा./त प्र./१८५ यो हि यस्य परिणामयिता दृष्ट' स न तदुपादानहान शून्यो दृष्टः, यथाग्निरय पिण्डस्य 1 =जो जिसका परिणमन करनेवाला देखा जाता है, वह उसके ग्रहग त्यागसे रहित नहीं देखा जाता है । जैसे-अग्नि लोहेके गोले में ग्रहण त्याग रहित होती है। (और भी दे० कर्ता /२/४) २. निश्चयसे प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणामका कर्ता है दूसरे का नहींप्र.सा/मू /१८४ कुत्रं सभावपादा हदि कित्ता सगस्स भावस्स । पोग्गल दब्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाण ११८४। अपने भावको करता हुआ दमा वारतवमे अपने भाबका कर्ता है, परन्तु पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावोंका कर्ता नहीं है। प्र.सा./न./प्र /१२२ ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भाव कर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण। परमार्थात पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता न तु ३. एक द्रव्य दूसरेके परिणामोंका कर्ता नहीं हो सकतास सा./५ /१०३ जो जम्हि गुणे दवे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दवे । सो अण्णमसंकेतो कह तं परिणामए दव्वं ।१०३। जो वस्तु जिस द्रव्यमें और गुणमे वर्तती है वह अन्य द्रव्यमे तथा गुणमें संक्रमणको प्राप्त नहीं होती ( अदलकर उसमे नहीं मिल जाती)। और अन्य रूपसे संक्रमणको प्राप्त न होती हुई वह अन्य वस्तुको कैसे परिणमन करा सकती है ।१०। ( स.सा/आ/१०४ ) क पा/१/१२८३/३१८/४ तिहं सद्दणयाणं.. कारणस्स होदि ; सगसरूवादो उप्पण्णस्स अण्णे हितो उत्पत्तिविरोहादो। तीनो शब्द नयोकी अपेक्षा कषायरूप कार्य कारण का नहीं होता, अर्थात् कार्यरूप भावकषायके स्वामी उसके कारण जीवद्रव्य और कर्मद्रव्य कहे जा सकते है, सो भी बात नहीं है, क्योकि कोई भी कार्य अपने स्वरूपसे उत्पन्न होता है। इसलिए उसकी अन्यसे उत्पत्ति माननेमे विरोध आता है। यो सा/अ/२/१८ पदार्थानां निमग्नानां स्वरूप परमार्थतः। करोति कोऽपि, कस्यापि न किंचन कदाचन ॥१८॥ यो सा/अ./३/१६ नान्यद्रव्यपरिणाममन्यद्रव्यं प्रपद्यले । स्वान्यद्रव्यव्यवस्थेय परस्य घटते कथम् ।१६।-संसारमें समस्त पदार्थ अपनेअपने स्वरूपमे मग्न है। निश्चयनयसे कोई भी कभी कुछ भी उनके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 ... 648