Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 13
________________ श्रद्धा होती है, इन्हीं में रुचि होती है, यह विनिश्चय होता है कि ये तीन तत्व ही सारभूत हैं, शेष सब निस्सार हैं, गाढ़-अवगाढ़ श्रद्धा ऐसी होती है कि बस मैं इन्हीं को मानूंगा, लेशमात्र भी विचलित नहीं होऊंगा, चाहे कितना ही संकट आ जाए, आपदा-विपदा आ जाए, ये ही मेरे आदर्श हैं, उनमें ही रमे, न डिगे तब कहा जाता है कि मिथ्या मान्यता टूटी, मान्यता सम्यक हो गई, वही सम्यक्त्व कहलाती है। जिसे ऐसी सम्यक्त्व या समकित हो गई उसकी दुर्गति नहीं होती। तिर्यंच और नरक गति में नहीं जाता। गति-भ्रमण नहीं होता। शीघ्र मोक्ष हो जाता है। ऐसा सम्यक्त्व का महत्व है। वैसे तो उक्त से स्पष्ट है, फिर भी आज प्रचलित 'गुरु आम्नाय' कर लेना सम्यक्त्व नहीं है। जिन निग्रंथ गुरुदेव से मैं आत्मबोध पाता हूँ, देव-गुरु धर्म का स्वरूप समझता हूँ, आत्मा और शरीर की भिन्नता, मोक्ष-मार्ग और संसार मार्ग का अन्तर समझता हूँ, मुझे कर्म बंध किससे होता है, वह कैसे रुकता है, वह कैसे समाप्त होता है, ऐसी समझ पक्की करता हूँ, आत्मज्ञान-आत्मदर्शन पाता हूँ, उनका परम उपकार मानता हूँ। वे मेरे धर्म-गुरु,धर्माचार्य हैं। यह भी कह सकता हूं परन्तु समस्त निर्ग्रथ-गुरुओं को भी परम वंदनीय-पूजनीय, अर्चनीय मानता हूं। यदि वे एक गुरु, या उनकी सम्प्रदाय के साधु-साध्वी तो मेरे लिए वंदनीय-पूजनीय और अन्य की मात्र सेवा, तो अन्य समस्त निर्ग्रथ-गुरुओं-ज्ञानियों-रत्नत्रयधर्म आराधकों का अविनय हो जाएगा, उनकी अशातना हो जाएगी। कभी वैर-वैमनस्य भी पनप जाएगा तो मेरा अनर्थ हो जाएगा, ऐसा मानें। सम्यक्त्वी साधक की गुणदृष्टि होनी चाहिए। जहां भी मिलें, ग्रहण करने में न चूकें। अपने आत्मिक गुणों के प्रकट करने हेतु गुण दृष्टि रखें, सम्यक्त्वी अपने अवगुण प्रकट करता है, अन्य के गुण प्रकट करता है, उनका गुणस्तुति, गुणगान करने से स्वयं आत्मा के गुण प्रकट होते जाते हैं। मिथ्यात्व किसे कहा? उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि देव, गुरु और धर्म का जो वास्तविक-पारमार्थिक स्वरूप तीर्थंकर परमात्मा, मेरे निग्रंथ गुरु ने फरमाया, वैसा नहीं मानना, उल्टा मानना, मिथ्या मानना है। कुदेवादि को देव माने, कुगुरु को सद्गुरु माने, कुधर्म को सद्धर्म माने तो मिथ्यात्व है। दूसरी अपेक्षा से, आत्मा के स्वरूप को न जाने, न समझे और यह शरीर मैं हूं, यह शरीर मेरा है, इस शरीर से जुड़े हुए परिजन मेरे हैं, इस शरीर या उसकी 114

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