Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 38
________________ माता हा पुरुषार्थ उपड़े, जगें, मोह निद्रा से, तो भिक्षु बनें, संयम लें, आत्मा के अपूर्व आनंद का अनुभव कर उसी में लीन हो जाएं। कर्म-बंध-जीव प्रतिपल जो शुभ या अशुभ भाव करता है, उससे कर्म का बंध होता है। हिंसा से मिथ्यादर्शन शल्य तक 18 पाप-स्थान हैं। अन्न पुण्य से नमस्कार पुण्य तक नौ शुभ भाव हैं। जीव अधिकांशतः अशुभ और कभी शुभ भाव करता है। भाव तो जीव (आत्मा) करता है परन्तु उन्हें क्रियान्वित करने में, इसके साथ जुड़ा मन, मनन करता है, वचन से बोला जाता है और काया या इन्द्रियों से कार्य किया जाता है। भगवान महावीर जानते हैं कि लोक में कार्मण-वर्गणा नाम के पुदगल होते हैं। मैं जैसे ही कोई विकारी भाव क्रोध आदि करता हूं, वे पुद्गल आते हैं, मेरे भावों की तीव्रता और मंदता के अनुसार ज्ञानावरणीय आदि कर्मों में बदलकर (परिणमित होकर) मेरे साथ बद्ध और स्पृष्ट हो जाते हैं। जैसे, भारी शक्ति वाला चुंबक किसी स्थान पर रखें तो उसके आसपास जो लोहे के कण, छोटे-बड़े आ-आकर गाढ़ता से चिपक जाते हैं, दूर-दूर के भी आ चिपकते हैं। खींचें तो मुश्किल से हटते हैं। ऐसे मेरा किसी के प्रति तीव्र मोह या मोह-राग या द्वेष का भाव हो तो कार्मण वर्गणा के पुद्गल भारी संख्या में आकर ऐसे चिपकेंगे कि छूटें-न-छूटे। यदि आसक्ति मंद है तो बंध भी मंद होगा, शीघ्र छूट भी जाएंगे। चिपकाने का कार्य लेश्या करती है। लेश्या जीव का भाव ही है। कर्म पौद्गलिक है-अन्य धर्मवेत्ता या दार्शनिक कर्म तो मानते हैं पर कोई उन्हें संस्कार मानते हैं, कोई जीव की क्रिया का फलस्वरूप कर्म कहते हैं। भगवान् महावीर कर्म को पुदगल मानते हैं। याद रखें, पुदगल में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श नाम के गुण होते हैं। ये कार्मण वर्गणा के पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, हमारी दृष्टि में नहीं आते। कितने या कितने गाढ़ या मंद कर्म बंधे हुए हैं, हम जान-देख नहीं सकते। वे फल देने आते हैं, उसे उदय या कर्मोदय कहते हैं। जब समक्ष कोई अनुकूल या प्रतिकूल व्यक्ति, वस्तु या स्थिति-परिस्थिति आती है, तब माने कि वह कर्म का फल आया है। एक व्यक्ति आपको शरीर-सुख, इन्द्रिय-सुख देने आया, समझें, मेरे ही पूर्व में बांधे पुण्य या साता वेदनीय कर्म का फल है। यदि एक व्यक्ति गाली देने, कलंक लगाने आया, शरीर-परिजन-धन-वैभव-पद-प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाता है, मानें, मेरे पूर्वबद्ध पाप-कर्म या असाता-वेदनीय कर्म का फल है। वह मात्र निमित्त या निमित्त कारण है। भगवान् महावीर मानते हैं कि जो हमें सुख या 1364

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