Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ होते हैं, उसमें शरीर, लिंग (स्त्री, नपुंसक, पुरुष लिंग), वेष, बाह्य में ग्रहण किया जाने वाला सर्वविरति संयम, उसमें भिन्न-भिन्न वेष, दिगम्बर (नग्न शरीर) या वस्त्र, वे भी भिन्न-भिन्न, इनकी कोई महत्ता नहीं। आत्मा को आत्मा का ज्ञान, आत्मा को आत्मा का दर्शन, आत्मा का आत्मा में रमणता करना, ऐसा ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म ही मोक्ष मार्ग और ज्ञान-दर्शन-स्वरूपरमणता की पूर्णता मोक्ष है। उसका प्रारंभ चौथे गुण स्थान पर, जब सम्यक्त्व प्रकट होती है तब, पूर्णता केवल ज्ञान, 13वां गुण स्थान है। महावीर, ईश्वरवाद की अपेक्षा कर्मवाद को मानते हैं। पूर्ण सत्य है कि ईश्वर या उसका कोई प्रतिनिधि-ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सृष्टि की, मेरी रचना करने, पोषण करने, नाश करने वाले, कर्ता, धर्ता, हर्ता नहीं हैं। कोई देवी-देवता भी सुख-दुख नहीं देते। मैं (आत्मा) अपने कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख के निमित्त प्राप्त करता हूं, अतः कर्मवाद कहलाया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चांडाल कौन? जन्मना जाति से महान् या हीन नहीं-फिर, महावीर यह उद्घोष भी स्पष्टतः करते हैं कि जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं होता। क्षुद्र, तुच्छ, हीन, पाशविक, राक्षस, चांडालिक प्रवृत्तियां हैं, उनमें रत रहने वाला जन्म से उच्च वर्ण, कुल का है परन्तु चांडाल है। मन का शुभ या अशुभ व्यवहार-कार्य व्यापार निरन्तर होता है। लाभ की दृष्टि वाला वैश्य होता है, जब अशुभ के स्थान पर मन के शुभ व्यापार प्रवृत्तियों के साथ बाह्य जीवन चलाएं तो वह वैश्य है। शरीर-शस्त्र बल से दूसरों का नाश करने हेतु युद्ध कर जीतने वाला क्षत्रिय नहीं, किसी भी वर्ण-कुल-जाति में जन्मा हो अपने कर्मशत्रुओं, राग-द्वेष-मोहादि महाशत्रुओं से युद्ध कर जीते वह क्षत्रिय है। जो शास्त्राभ्यास करे-कराए, शास्त्र कौन से, जिनसे आत्मा, कर्म, कर्म से रहित परम शुद्ध आत्मा, परमात्मा का रहस्य, सृष्टि-लोक की त्रैकालिक (तीनों काल शाश्वत-सत्य) सत्ता को जानने में आ जाए। उसके कारण स्व-कृत कर्म को स्व-पुरुषार्थ से नष्ट कर शुद्धात्मा बन जाता है, यह पठन-पाठन करने वाला, उपाय बताने वाला, उससे शुद्धात्मा बन जाने वाला, परम ब्रह्म-आत्मा हो जाने वाला, दूसरों को वह परम तत्व समझाने वाला ब्राह्मण है। बाह्य में शील-सदाचार पाले, हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन सेवन, परिग्रह से विरत हो, वह ब्राह्मण है, चाहे जन्म किसी भी जाति-कुल, 774

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84