Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 81
________________ करो-करो-करो में ही अटके तो भटके-घर-गृहस्थी में पाप-क्रिया रही। साथ में, फिर अधिकांश में पुण्य-क्रिया रही। आत्म साधना में आए तो शुभ अध्यवसाय, प्रशस्त से प्रशस्ततर, प्रशस्ततम, शुभ से शुभतम क्रिया रही। ये प्रवृत्तियां बाहर में दिखती हैं परन्तु वस्तुतः सभी निवृत्ति में, अक्रिय में, अकर्म में ले जाने वाली हैं। प्रशस्ततम धर्मानुराग (क्रिया) से भी उत्कृष्टतम अक्रिया में जाना है। स्वयं-स्वयं में होना ध्यान है-इनका चरम ध्यान, मात्र आत्म-ध्यान मानें। उसमें भी ध्यान 'करने रूप' क्रिया बन गया। ध्यान की सैकड़ों पद्धतियाँ और सैकड़ों प्रवर्तक, ध्यान-शिक्षक हो गए। महावीर ने कौन सा ध्यान किया? बाह्य में कोई सिद्धासन, पद्मासन नहीं। कोई पद्धति नहीं, कोई चिन्तन नहीं। कोई मनन नहीं। मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया ही नहीं। न एकान्त अशुभ पाप क्रिया, न शुभ क्रिया, न प्रशस्त, शुभतम क्रिया। अक्रिया। आत्मा, एक द्रव्य है। उसके गुण हैं-ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त। स्वभाव है, स्वयं को जानना, स्वयं को देखना। कोई क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं। मन, वचन, काया का कार्य-क्रिया नहीं। ये तीनों आत्मा के भावों को बाह्य में व्यक्त करने, क्रियान्वित करने के साधन हैं। इन्हीं के माध्यम से कोई भी बाह्य प्रवृत्ति, क्रिया, कार्य, कर्म आदि होते हैं। वे एकान्त अशुभ, शुभ, एकान्त शुभ-से-शुभतम। महावीर कहते हैं, क्रिया है तो कर्म हैं, अन्तःक्रिया है तो मुक्ति है। करना नहीं,जो 'हूं' वह 'हो जाऊं-गुणों को, स्वभाव को, सहज गुण को, सहज स्वरूप को करना नहीं पड़ता, जानना क्रिया नहीं है। जान कर प्रिय-अप्रिय मान प्रियता-अप्रियता मन-वचन-काया से प्रकट होगी, प्रवृत्ति होगी। मात्र जानना, मात्र देखना, प्रथम स्तर पर पर-पदार्थ को पर-पदार्थ रूप जानना-देखना, स्व-पदार्थ को स्व-रूप जानना-देखना। जब पर-पदार्थ "मैं नहीं, मेरा नहीं, मेरा, त्रिकाल, कभी होता नहीं", तो पर-पदार्थ को भी जानना-देखना बन्द। मात्र स्वयं को जानना, स्वयं को देखना। वह 'करना' क्रिया नहीं है, वह शब्द में स्व-गुण-परिणमन 'करना' कहा जाता है, वह होना है। जो 'हूं' वही 'हो जाना' उसमें क्रिया नहीं, क्रिया से रहित, सहज-स्वभाव होना है। वही 'अक्रिया है, वही अन्तःक्रिया है। जिन क्षणों में वह हो, उसी में स्थिर हो, अपने-आप का अपूर्व आनन्द है। वहां ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय की एकता है। वह 'मैं आत्मा, मात्र ज्ञाता, मात्र द्रष्टा, मात्र स्व का ज्ञाता, स्व का द्रष्टा। अरिहंत परमात्मा-सिद्ध परमात्मा ऐसे ही हैं। उस अक्रिय स्वरूप का प्रारंभ चौथे गुणस्थान से और पूर्णता 13वें गुण स्थान 79

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