Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 57
________________ फिर दूध-आहार में है। बनकर फिर सात-आठ प्रकार की घातुओं में, विभाजित, संतुलित विभाजन की भी शक्ति है। ऐसे ही आत्मा के भाव गिनें, आहार और उससे बने ज्ञानावरणादि आठ कर्म और अनुपात में समानुपातिक विभाजन भी होता रहता 6] __जैसा दृष्टांत में कहा कि शरीर के साथ आत्मा है, तब तक ही आहारादि से विभिन्न तत्वों, अंगों, अवयवों की रचना, पोषण होता है, न हो आत्मा तो ये नहीं बनेंगे। वैसे ही आत्मा के विकार भाव का, रागादि का संयोग, कार्मण वर्गणा के पुद्गल से हो तो कर्म-शरीर की भी रचना होती है। यदि आत्मा का विकार भाव न हो तो? जैसे वह भोजन बाहर पड़ा रहे, शव के पेट में पहुंचे तो अपनी सहज पौद्गलिक क्रिया करेगा। पुद्गल के गुण हैं-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श। स्वभाव है-सड़न, गलन। वे औदारिक पुद्गल अपने गुण में निरन्तर परिणमन करेंगे। पर्याय में परिवर्तन होगा। स्वभाव के अनुसार सड़न-गलन भी होगा। __ शरीर पुद्गल का परिणमन उसके गुण के अनुसार ही-ऐसी ही औदारिक वर्गणाओं (हाड़-मांसादि) का बना यह शरीर चाहे आत्मा साथ है तब भी अपने गुण में, अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करते हैं। आत्मा के साथ रहने से कुछ भिन्नता रहेगी। सड़न-गलन तेजी से नहीं होगी। होती तो रहती है तभी तो शरीर के मुख्य नौ द्वारों से (दो कान, दो आंखें, दो नथुने, एक मुंह, मूत्रद्वार, मल द्वार) निरंतर गंदगी निकलती है। पुद्गल-शरीर का स्व-गुण परिणमन मुझमें मानना ही अनंत कर्म का आश्रव है-प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुणों के अनुसार, अपने ही गुणों में स्वयं की शक्ति से ही परिणमन (पर्याय या रूप का बदलना) करता है। सर्वाधिक, अनन्त कर्मों के आने का, आश्रव का मूल कारण है, मैंने (आत्मा ने) माना कि यह वर्ण-गंध-रस-गुण वाला मैं ही हूं, इनमें जो निरन्तर परिणमन हो रहा है, वह मुझमें हो रहा है। मेरा गोरा रंग था, काला पड़ने लगा, चिंतामग्न हो गया। बाल काले से सफेद होने लगे, भारी चिंता, बुढ़ापा आ रहा है, रोग मुझमें आ रहे हैं। मेरा सिर-पेट दुख रहा है, मेरे ये रोग आ गए, हो गए, मैं मर रहा हूं, आदि। (मेरे संयोग से) हो तो शरीर में, शरीर (पुद्गल) के गुण-स्वभाव के अनुसार ही हो रहा है, वही उसका स्वभाव है परन्तु उसे मैंने, मुझमें होने का ऐसा भ्रम पाल लिया कि वह मेरे अनुकूल हो तो मैं हर्षित-प्रसन्न और प्रतिकूल हो तो दुखी-आर्त। दोनों में कर्म का आश्रव 554

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