Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 67
________________ सबल बच्चा मैं जोरदार चांटा राग या कई निर्बल जीवों की हिंसा-विराधना । निर्बल वेदनीय कर्म (अघाती, निर्बल), अपने साथ ज्ञानावरणादि साक को और ले आया और मुझे चर्तुगति में अनन्त बार मारने के लिए ताल ठोंक रहे हैं, मैं प्रवचन माता की गोद में दुबक कर बैठ गया। प्रवचन अर्थात् अपूर्व पुरुष, परम ज्ञानी की परम अमृतवाणी - वीतरागी की गोद में बैठ गया। वे सब बदला लेने आए, मेरे रागादि रूप चांटे से बने कर्म, अब उदय में आकर, आश्रव-बंध करवाने हेतु तत्पर खड़े हैं। मैं अन्दर गुप्त हो गया। जितने जोर से, जितनी देर तक ताल ठोंकते रहे, मैं मां की गोद, प्रवचन माता की गोद में निर्भय, अभय बैठा रहा, वे थक-हारकर चले गए। संवर हो गया। प्रवचन माता का दूसरा अर्थ, पंच महाव्रती जब पांच समितियों और तीन गुप्तियों, आठ की परिपालना में लगा है, तब पर-पदार्थ के कारण होने वाले पर-भाव से परे हो, स्व-भाव में चला जाए, तो आश्रव रुका, संवर हो गया। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह इन पांच पापों को आजीवन, तीन करण-तीन योग से सेवन न करना, यह महाव्रतों की आराधना, संयम या संवर है। इन पापों से संवृत हुआ। फिर उपयोगपूर्वक गमनागमन, शब्दोचार, आहार ग्रहण, वस्त्र पात्रादि उठाना-रखना, शरीर से निकले गंदे पदार्थ (उच्छिष्ठ) इतनी यतना से परठना कि, किसी भी जीव की हिंसा विराधना न हो, किसी जीव को क्लेश न हो, ये पांच समितियां हैं। (क्रमशः शास्त्रीय शब्द, ध्यान में रख सकें तो रखें, ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप, परिष्ठापना) । मन् वचन काया को अक्रिय करना, गुप्ति है। गृहस्थ कैसे करें? मन-वचन काया का व्यापार आत्मा के (मेरे) भावों के अनुसार, शुभ या अशुभ में निरंतर निरत रहता है, चलता रहता है, तब तक श्रव है। जब इनका शुभ या अशुभ, दोनों व्यापार रुक जाए, मन को चुप, चुपचाप बैठा रह, कोई चिंतन-मनन नहीं, वचन से भी उच्चारण, मन-मन में बोलना भी नहीं और काया की किसी भी क्रिया, किसी भी अंग की अनुकूल-प्रतिकूल क्रिया से दृष्टि परे कर आत्म गुप्त होना, यह आश्रव द्वार रोकना संवर हुआ। इसे मन गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति कहा। पांच और तीन मिलकर आठ प्रवचन माला कहलाए, इनमें लीन होते, अपने में तन्मय, तल्लीन होते ही, स्वयं में रमण करते ही, आने वाले कर्मों का रुक जाना, संवर होता है। गृहस्थ, चौथा, पांचवां गुणस्थानवर्ती भी अंश में, अंश अंश में बढ़ता जाकर ऐसा आश्रव द्वार बंद करने रूप संवृत हो सकता है। आत्मपुरुषार्थ करो। · 65

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