Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 75
________________ आने वाले कर्मों को रोकना प्रारंभ हुआ, मोक्ष प्रकट होना शुरू हो गया। जब सर्वविकारी भावों से परे पूर्ण संवृत हुआ, तब पूर्वोपार्जित कर्म का सहज उदय आया, उससे अप्रभावित रहे, लेशमात्र उसके कारण विकार न उठे तो अंश-अंश में वे कर्म निर्जरित होते गए। जब उदीरणकरण करके, बाद में उदय में आने वाले कर्मों को पहले ही उदय में लाए, कष्ट, उपसर्ग, बाधा, प्रतिकूलता, परीषह आ जाएं, तभी उधर न देख, न झांक, आत्मा में लीन, ज्ञाता-द्रष्टा, स्वयं ही स्वयं को जानना, स्वयं ही स्वयं को देखना, जानना-देखना, जानना-देखना हो, कर्मों की धड़ाधड़ निर्जरा होते-होते सर्वघाती कर्म नष्ट होने पर मोक्ष। ज्ञानावरणीय नष्ट होने पर अनन्त ज्ञान, दर्शनावरणीय नष्ट होने पर अनन्त दर्शन, मोहनीय नष्ट होने पर आत्मा को आत्मा के अनन्त सुख का आनन्द और अन्तराय कर्म के क्षय होने पर आत्मा का उपयोग मात्र आत्मा में स्थिर होते ही मोक्ष। जन्म-मरण का अन्तः शुद्ध परमात्मा अवतार नहीं लेते-ऐसे अरिहंत, जिन, केवली परमात्मा के चार अघाती कर्म शेष हैं परन्तु वे निज गुणों में लेशमात्र भी हानि नहीं पहुंचाते। उनके ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अनन्त स्वरूप प्रकट हो गये। अब उन्हें कुछ भी करना शेष नहीं रहा। उन्हें कृतकृत्य कहा। परम शुद्ध, परम बुद्ध, परम मुक्त हैं। परम वीतरागी हैं, परम शान्त हैं। परम आनन्द में सदा लीन रहते हैं। आयुष्य काल स्वतः व्यतीत होता है। वह पूर्ण होते ही, शेष, नाम, गौत्र, वेदनीय भी समाप्त हो जाते हैं। अशरीरी हो जाते हैं। तब सिद्ध शिला पर जा बिराजते हैं। लोक के अग्रतम भाग पर अवस्थित रहते हैं। वहां अनन्त काल तक बिना किसी बाधा के अनन्त आत्मिक सुख, आनन्द में लीन रहते हैं। कर्मांश ही नहीं है, अतः पुनः विकार भाव उठे, ऐसा कोई कारण नहीं। निर्विकारी, शुद्ध हैं अतः पुनः जन्म नहीं लेना है। परिनिर्वाण या निर्वाण हो गया, सर्व दुखों का अन्त हो गया। ईश्वरवादियों के ईश्वर (परमात्मा) संसार में जब-जब संकट होते हैं, राक्षसी वृत्तियां बढ़ जाती हैं, तो भले मनुष्यों की रक्षा हेतु जैसे अवतार लेते हैं, वैसे सिद्ध परमात्मा नहीं होते। पुनः जन्म, अवतार नहीं है। भरत क्षेत्र में पांचवें आरे से मोक्ष होता है क्या? आत्मा की जितनी-जितनी शुद्धि होती जाती है, उतना-उतना मोक्ष है। जितने अंश में, जिस काल में आत्मा को अपने अपूर्व आत्मा का आनन्द आता है, वह मोक्ष है। जितने अंश में आत्मा के गुणों की घात (हानि) करने वाले घाती कर्मों का क्षय होता है, उतना मोक्ष है। उनमें मोहनीय कर्म सर्वघाती माना है। स्वयं, स्वयं को नहीं जानने-देखने दे, परिचय ही 1734

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