Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 68
________________ (8) निर्जरा तत्व-संवर पूर्वक निर्जरा होती है। संवर में पहले जो दृष्टांत लिए, निर्जरा तत्व में, उन्हीं से निर्जरा कैसे होती है, यह समझें। संवर में आने वाले वर्तमान कर्माश्रव के द्वार रोकना है। निर्जरा पूर्व बद्ध कर्म की होती है। कितने कर्म बांध रखे हैं, मुझे ज्ञात नहीं हैं। जब कोई अनुकूल-प्रतिकूल निमित्त आता है तो समझो, वह पूर्वबद्ध कर्म का फल है। अज्ञानता, मिथ्यात्व के कारण, मिथ्या-मोहादि करके कर्म का आश्रव-बंध होता है। यह कर्म श्रृंखला बन जाती है। अनादि से हूं। अनादि से मैं अनन्त ज्ञान दर्शनादि गुण सम्पन्न हूं। परन्तु अनादि से मेरे साथ ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का संयोग भी है। उनमें से चार अघाती कर्मों के फल से शरीरादि मिलते हैं। शरीर के साथ इन्द्रियां जुड़ी हैं तो अज्ञानता से मैं अनन्त रागादि भाव कर्म से भी जुड़ा हूं। तीन संयोग हुए - ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म, उसके कारण शरीरादि, उसके कारण रागादि भावकर्म । चक्रव्यूह में से कैसे निकल सकते हैं? अनादि-श्रृंखला कैसी हुई, द्रव्य कर्म से भाव कर्म, भाव कर्म से द्रव्य कर्म, द्रव्य कर्म के फल से शरीरादि । शरीरादि से पुनः रागादि भाव कर्म किया, उससे ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म बंधे। क्रमशः अनन्त काल से मैं ऐसा फंसता आ रहा हूं, यह दुष्चक्र, चक्रव्यूह, चर्तुगतिरूप चक्र। अनादि से, अभी तक की भूल अज्ञानता में करता रहा उदय कर्म के ही अनुसार राग-द्वेष रूप वर्तन। मनुष्य भव, कुशाग्र बुद्धि, आर्य क्षेत्र, आर्य कुल मिला। आर्य अर्थात् तीर्थंकर के वचन सद्गुरु भगवन्त से सुन समझा कि तीनों संयोगी हैं। मैं संयोगों से परे अयोगी आत्मा हूं। कर्म-फल न चखूं तो निर्जरा इस पक्की समझ से, उसके बाद पूर्वबद्ध कर्म, द्रव्य कर्म फल लेकर आया, अनुकूल या प्रतिकूल फल किसी निमित्त के माध्यम से देना चाहता है। मैं अपने में लीन, ध्यानमग्न हो गया। वह निमित्त कारण जितने काल का, जैसा अनुभाव बंध बांधा था, वैसा उतने काल तक फल देता रहा, दे दिया, मैं अपने में मग्न, आत्मध्यान में लीन रहा। उस कर्म के अनुसार मैं कोई राग या द्वेष की प्रतिक्रिया नहीं की। वह कर्म फल देकर निर्जीर्ण हो गया, नष्ट हो गया। मैं उस पूर्वोपार्जित कर्म से मुक्त हो गया। यह निर्जरा कहलाती है। चूंकि मैंने कोई राग-द्वेष की प्रतिक्रिया नहीं की तो नए कर्म आना रुके, संवर हुआ। फल दे दिया, उस फल से मैं सुखी या दुखी नहीं हुआ, निर्जरा भी हो गई इसलिए संवर-पूर्वक निर्जरा होती है। 66

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