Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 41
________________ ज्ञानावरणादि कर्म रूप में परिवर्तित (पर्यायन्तरित) होते हैं, मुझसे आकर बंधते हैं, मुझे छूते हैं (बद्ध-स्पृष्ट होते हैं) तब वह द्रव्य बंध कहलाता है। ऐसी अनादि की बंध पर्याय है। द्रव्य कर्मबंध के उदय में मैं रागादि भाव-कर्म करता हूं, पुनः द्रव्य कर्मबंध होता है। ऐसी यह अनादि से श्रृंखला बंधी हुई है। दुष्चक्र, चक्रव्यूह, चतुर्गति के चक्रव्यूह में, अपने ही दुर्भाव से बंधता जाता हूं। यह बंध है। मिथ्या मोहादि से रति-अरति और बंध-कर्म बंध के मूल मिथ्यात्व और अज्ञान के कारण होता है मिथ्या मोहादि। राग-द्वेष या रति-अरति इंद्रिय विषयों के सेवन से है। पांच इंद्रियों के माध्यम से सुख का अनुभव होता है। सुरीले गाने, संगीत की स्वर-लहरी-धुन सुनते ही प्रसन्नता होती है। इसे रतिभाव कहा। कर्ण-कटु, कठोर-गाली सुनते ही बुरा लगता है। इसे अरति कहते हैं। सुन्दर-बल-सौष्टव वाले को, सुन्दरी-अप्सरा जैसी-चौदहवीं का चांद देखते ही, सुरम्य-आकर्षक-मनोहारी बाग-बगीचे-वन-उपवन, प्राकृतिक छटा देखते ही मन-मयूर नाच उठता है। इसे रति भाव कहा। कुरूप, भद्दा चेहरा, वीभत्स, दृश्य देखते ही मुंह फेरते हैं। यह अरति भाव है। बाग-बगीचों में, सुगन्धित स्थान, वातावरण में इत्र-फुलेल सूंघने में अच्छा लगता है, सुहाता है, यह रति भाव है। गंदे नाले, दुर्गंधयुक्त वातावरण में नाक-भौं सिकोड़ते हैं, यह अरति भाव है। स्वादिष्ट भोजन, आहार, व्यंजन-मिठाईयां, नमकीन, विविध मनभाती खाद्य वस्तुएं, पेय पदार्थ से रसनेन्द्रिय का मजा आ जाता है। बेस्वाद, रूखा-सूखा, बिना नमक का आहार-भोजनादि मिले तो अरुचिकर लगता है, भाता नहीं, गले नहीं उतरता है, यह अरति भाव है। आसन-शयन मुलायम-गुदगुदा-मखमली-कोमल हो, गर्मी में ठंडक मिले, सर्दी में गरमी मिले, हवा अच्छी मिले, वातानुकूलन हो तो ऐसे शरीर-सुख को रति भाव कहते हैं। रति-क्रिया हेतु मनोनुकूल साथी-साथिन मिले तो रति भाव अच्छा लगता है। ये सब प्रतिकूल मिलें तो अरुचि-अरति होती है। विरत हों तो अबंध-इन पांचों इन्द्रियों के लिए व्यक्ति, वस्तु, स्थिति, परिस्थिति पूर्व कर्म के उदय में अनुकूल मिलें तो उनमें राग, रति, हर्ष, आसक्ति होती है। उसमें आसक्त, गृद्ध, लिप्त होते हैं। छककर भोगते हैं, मजा आता है। यदि ये पूर्व पापोदय से प्रतिकूल मिलें या हो जाएं तो द्वेष, अरति, शोक, वितृष्णा (घृणा, तिरस्कार, प्रतिकार) होता है। बुरा लगता है। यह रति या अरति कर्म-बंध का कारण है। मूल-मुख्य हुआ आसक्ति जन्य कर्मबंध। गाढ़ रति-अरति है तो बंध 1394

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