Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 27
________________ आकाश में ठहरा है, आकास्तिकाय है, हाथ की झुर्रियाँ, शरीर की कृशता से काल की उपस्थिति, वृद्धपना दिख रहा है-काल। हाथ या शरीर में वर्ण (रंग), गंध, रस, स्पर्श गुण हैं, अर्थात् पुद्गलास्तिकाय है और ये हाथ ऊपर-नीचे करने की क्रिया आदि अनुभव करने, जानने-देखने वाला-जीवास्तिकाय, मैं भी हूं। सभी एक साथ रहते हुए भी प्रत्येक द्रव्य अपना स्वतंत्र पृथक अस्तित्व बनाए हुए है। छहों द्रव्य मिलकर एक नहीं होते, सातवां द्रव्य नहीं होता। पहले पांचों ने मेरा अस्तित्व मिटा नहीं दिया है। ये पांचों द्रव्य अजीव हैं, इनमें से किसी में भी जानने-देखने-अनुभव करने की शक्ति नहीं है, गुण नहीं है, वह मुझमें, आत्मा में है। मैं आत्म द्रव्य अनन्त काल से पृथक-पृथक शरीर, कभी स्थावरकाय का, कभी दो, तीन, चार, पांच इन्द्रियों वाला तिर्यंच-शरीर, कभी मनुष्य, कभी नारकी, कभी देव शरीर धारण करते भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हूं। मैं इन पांचों अजीव द्रव्यों से पूर्णतः भिन्न ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुणों का समूह जीव द्रव्य हूं। शरीरादि संयोगी है, वियोग निश्चित है मैं, शरीर से पूर्णतः पृथक स्वतन्त्र आत्म-द्रव्य हं-चार द्रव्यों की भूमिका मेरे ध्यान में नहीं आती। परन्तु पांचवें पुद्गल द्रव्य से बने इस शरीर की भूमिका, महत्व भारी है, प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। यही मैं हूं, यह मेरा है, मैं इसका हूं, दोनों एक ही तो हैं, शरीर में आत्म बुद्धि, बस यही अज्ञानता अनादि से गिनें तो अनन्त काल से चल रही है। महावीर कहते हैं, चाहे भिन्न रूपों में यह मेरे साथ अनादि से है, मेरा एक अंश भी जड़-पुद्गल नहीं हुआ, इस शरीर का एक अंश, एक परमाणु भी चेतन रूप,जीवरूप नहीं हुआ। यह कर्म संयोग से मिलता, बिछुड़ता है, संयोग स्वभाव वाला है, मैं इसके संयोग के होते हुए भी असंयोगी, अयोगी आत्मा हूं, शुद्ध आत्मा हूं। परमात्मस्वरूप मैं ही हूं। मैंने पूर्व भव में नाम, गोत्र, आयुष्य कर्म बांधा, उसके फल से यह शरीर, माता-पिता के संयोग से बना, जुड़ा, मिला। पूर्व के वेदनीय कर्म से साता (सुख), असाता (दुख) मिले, मिलते हैं। शरीर के संयोग से, शरीर के साथ जुड़ी पांच इन्द्रियों के कारण, उनकी पूर्ति में, मैं निरंतर रागादि भाव कर्म करता हूं। उसके कारण ज्ञानावरण आदि कर्मों का संयोग होता है। शरीरादि, रागादि भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म, तीनों संयोगों से परे मैं तो असंयोगी, अयोगी, असंग, अभय, अनासक्त, ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूपी आत्मा हूं। इनके मेरे साथ संयोग संबंध हैं। शरीर मिला, संयोग से, उससे जुड़े परिवार, उनके लिए जोड़ा धन, सभी छूटने वाले, आयु न जाने किस क्षण पूरी हो जाए और सब छूटने वाला। 25

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