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जानता रहा, उसे ही अपना मान देखता रहा, उसी कारण उसी में मोह-ममता-आसक्ति-राग करता रहा, उसी के कारण या उसमें रही हुई इन्द्रियों से मिलने वाले सुख को ही सुख मानता रहा। निरन्तर अनन्त काल तक वही करता रहा तो कहेंगे, ज्ञान अज्ञानरूप, दर्शन अदर्शन या मिथ्या दर्शन रूप, सुख बाह्य पदार्थों में इन्द्रियों से मिले सुख को ही अपना जानता-मानता रहा। ऐसे ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुण उल्टे चल रहे थे।
मूल में भूल-शरीर को अपना जाना मूल कारण हुआ-अपना वास्तविक स्वरूप तो नहीं जाना, नहीं समझा और शरीर के स्वरूप को, शरीर को ही अपना जाना, अपना माना। इस अनादि की भूल से अनन्त कर्म और जन्म-मरण के अनन्त दुख उठाए। योगानुयोग, शुभ भाव से, पूर्व के जीवनों में भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी सही, मार भी खाई परन्तु पशु आदि में रहा, बेबस सहन किया। उससे पुण्य बंधा। ऐसे कई भवों के पुण्य के पुंज के पुंज, ढेर एकत्र होने से मनुष्य भव मिला, बुद्धि अच्छी मिली, आर्य क्षेत्र मिला, शाकाहारी-संस्कारी माता-पिता या कुल मिला। मैं भी ज्ञानी के वचन सुनूं, अपनी आत्मा को, कर्म को, कर्मफल को, परम सुख रूप मोक्ष को समझू ऐसा भाव किसी, किन्हीं पूर्व मनुष्य भव में आता था पर जाकर सुनने का अवसर नहीं मिला, उस शुभ भाव से विशिष्ट पुण्य बंध हुआ। उस कारण परम ज्ञानी, परमवीतरागी, तीर्थंकर परमात्मा की वाणी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, ज्ञानी गुरु से सुनने का अवसर मिला। सुनकर समझा मैं शरीर रूप नहीं हूं। यह जन्म, रोग, शोक, दुख, दारिद्रय, मृत्यु तो शरीर या शरीर संबंधी हैं, मैंने अपने जान लिए, गलती हो गई। सुन-समझ-पक्काकर शरीर से पूर्णतः पृथक स्वतंत्र अस्तित्व वाला आत्मा हूं। ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य मेरे गुण हैं। वर्ण-गंध-रस-स्पर्श गुणों वाला, सड़ने-गलने-नष्ट होने वाला यह शरीर है, यह मेरा नहीं, मैं इसका नहीं, भूल सुधरी और दोनों पृथक-पृथक जान देख-अनुभव में आ गए तो सम्यक्त्व हुई। अनादि का अज्ञान टूटा, मिथ्या मान्यता मिटी। ज्ञान सम्यक हो गया, दर्शन सम्यक हो गया और अनन्त जन्म-मरण, उससे अनन्त दुख का कारण मिट गया। ऐसा अशुचि, दुर्गन्धों वाले शरीर से भिन्न अपने ज्ञान-दर्शन स्वरूपी आत्मा को जानना ही आत्म तत्व को जानना कहलाया। वह आत्म तत्व स्वरूप मैं हूं। ऐसा स्वरूप आत्मा का हुआ। यह आत्म तत्व की व्याख्या समझो।
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