Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ शरीर के साथ अमूर्तिक-अरूपी आत्मा का बंधना, संभव नहीं है। वस्तुतः ये दोनों साथ रहते हैं दोनों अपने-अपने गुणों में अवस्थित हैं। अपनी-अपनी अवगाहना लिए, दोनों आकाश में रहते हैं। इनका साथ हो जाना ही बंध है। यह बंधन अनादि से है। ज्ञानावरण आदि कर्म बंध अनादि से है। उन्हीं में से अघाती कर्म नाम, गौत्र, आयुष्य कर्म के फलस्वरूप शरीर से भी यह आत्मा अनादि से बंधा है। साता या असातावेदनीय कर्म से सुख-दुख भी अनादि से हैं। इन्हीं के कारण विकारी भाव-कर्म या असाता वेदनीय कर्म से सुख-दुख भी अनादि से हैं। इन्हीं के कारण विकारी भाव - कर्म भी अनादि से हैं। इसीलिए कहा जाता है अनादि बंध के कारण अनन्त काल से मैं जन्म-मरण के अनन्त दुख से दुखी हो रहा हूं। अनुकूल मिले तो राग-रति कर कर्म-बंध बंध से ही बंधानें कि मैं जिन-जिन से बंधन में बंधा हूं, वही बंध का कारण हैं। देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी, इन चार गतियों में, 84 लाख जीव योनियों में, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-इन पांच जातियों में, जब-जब भी गया, वहां-वहां जन्मा, जिनके बीच रहा, तब-तब यह माना कि ये मेरे हैं, मैं इनका हूं, ऐसी ममता करके मैंने कर्म बंध किया। ये ममता के बंधन भयंकर हैं। सर्वाधिक ममता इस शरीर से है। इसकी पूर्ति में जो-जो व्यक्ति सहायक हैं, उनसे उसी अनुपात में ममता है। जिससे जिस इन्द्रिय विषय की पूर्ति होती है, उससे उतनी ही ममता होती है। जिससे पांचों इन्द्रियों के विषयों की भरपूर पूर्ति होती है उसे परिवार - शास्त्र में धर्मपति-धर्मपत्नी कहते हैं। गाढ़तम, तीव्रतम ममता या प्रीति या प्रेम या मोह या रति कहें- इन दोनों के बीच कही जाती है। साहित्य में उन्हें प्रियतम प्रियतमा, या प्राण प्यारे-प्राण प्यारी कहा जाता है। जितनी प्रीति अधिक, उतना ही बंध अधिक श्रेणियां- गाढ़ - गाढ़तर गाढ़तम या मंद, मंदतर, मंदतम। जिसका जितनी श्रेणी का, तरतमता का अनुराग, राग, मोह, प्रीति, आदर-सम्मान सेवा उतना, उसी श्रेणी का कर्म बंध होता है। अत्यन्त अनुराग वाले माता-पिता, प्रेमी, भाई-बहन आदि को भी दरकिनार कर गाढ़तम प्रेमानुराग, प्रीति, मोह-ममता प्रियतम और प्रियतमा में होती है। कहते हैं-सातवीं पृथ्वी अर्थात् सातवीं नारकी तमः तमा में जाने का बंध कर भयंकरतम दुख भोगने पड़ते हैं। जिन-जिन व्यक्तियों से जितना जितना मोहित होकर बंधन बांध रखे हैं वह सब कर्मबंध का कारण है। 33

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84