Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 32
________________ नहीं समझता कि तुझमें तो वर्ण नामक गुण ही नहीं है, वह तो पुद्गल का, इस शरीर का गुण है। वह गुण स्वभाव के अनुसार वैसा ही होता है, होगा। भाई! तुम क्यों परेशान, दुखी होते हो। उसके सहज स्वभाव परिणमन को तुम रोक सकते हो क्या? प्रयास भले ही करो, रुकता नहीं है। सुगंध से दुर्गंध, स्वादिष्ट से बेस्वाद, मीठे का खट्टा-खारा, मुलायम का कड़ा, ठंडे का गरम, गरम का ठंडा होना-ये सभी पुद्गल की पर्यायें (अवस्थाएं) हैं। पक्का मानो कि वे मेरी नहीं हैं। ___आत्मा की पर्यायें आत्मा में से ही प्रकट होंगी। मेरा एक गुण है-ज्ञान। वह जानने रूप ज्ञान कभी मिथ्या मान्यता वाले कथन, सिद्धान्त सुन-पढ़ कर उलटा चलता है। जिसे जानना चाहिए उसे तो नहीं जानता, परायों को अपना जानता है। परायों की गिनती में गिनें-(1) तन (2) जन (3) धन। यह तन, शरीर, मिट्टी का पुतला, पुद्गल-परमाणुओं का स्कंध (पिड, समूह, घनीभूत रूप) पराया है। इस तन के साथ जुड़ी इन्द्रियां, उनकी पूर्ति हेतु जोड़े, जुड़े जन, परिजन। उनके जुड़ते ही, मिलते ही उनकी पूर्ति, पोषण हेतु कमाया-जोड़ा धन। तन भी पराया, जन भी पराये, धन भी पराया। इन्हें अपना जाना और अपने को जाना ही नहीं, कभी सुना-पढ़ा तो शब्द रूप जाना। इसे कहा-मेरे ज्ञान गुण की यह विपरीत पर्याय है, कुबुद्धि, दुर्बुद्धि, कुमति, मति अज्ञान। वह मेरे ज्ञान गुण से ही निकली है। कभी ज्ञानी के, परम ज्ञानी के वचन से सुलटी होकर, सुबुद्धि, सुमति, मतिज्ञान हो जाती है। अन्तिम पूर्ण अवस्था केवल ज्ञान हो जाती है। तब मैं मात्र निरंतर मुझे ही जानता हूं। वही मेरा असली स्वरूप है। उसी के लिए सारा आत्म पुरुषार्थ है। यह लिखना, पढ़ना, समझना, उस स्व, शुद्ध स्वरूप को पा जाने के लिए है। अभी मैं (आत्मा) मनुष्य पर्याय में हूं, वस्तुतः मनुष्य शरीर पुद्गल की पर्याय है परन्तु व्यवहार नय से, व्यवहार अपेक्षा से, दृष्टि से ऐसा कहा जाता है। यह द्रव्य से, गुण से, पर्याय से जीव और संयोगी अजीव-पुद्गल शरीर की भिन्नता, पूर्णतः पृथकता का ज्ञान, भान कराया। प्रथम संयोग शरीरादि तीनों संयोग पौद्गलिक हैं-मेरे साथ (आत्मा के साथ) तीन प्रकार के संयोग हैं। एक शरीरादि का संयोग। संसारी दशा में, अभी मैं शरीर से बंधा, जुड़ा हुआ हूं। शरीर जिससे उत्पन्न हुआ, जिससे विवाह कारण से मिला, दोनों के हुए बेटे-बेटी, फिर पोते-पोती, दुहिते-दुहिती, सगे-संबंधी, बंधु-बांधव आदि कई। इनका मेरा संबंध शरीर से है। इन्हीं के लिए जुड़ा धन-वैभव-पद-प्रतिष्ठा आदि। ये 4304

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