Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 25
________________ बौद्ध दार्शनिक को महावीर कहते हैं- तुम सत्य कहते हो कि उत्पाद व्यय तो निरन्तर होता है। आत्मा में, वैसे ही पुद्गल में निरन्तर उत्पाद व्यय, पुरानी पर्याय का नाश, नई का उत्पाद होता रहता है। द्रव्य स्वभाव है-अपने गुणों में नित्य परिणमन। परन्तु भाई! जिसमें यह पर्यायान्तर, उत्पाद-व्यय हो रहा है, उस ध्रुव द्रव्य, ध्रुव आत्मा को भी मानो । चार्वाकवादियों को महावीर कहते हैं- तुम ठीक कहते हो कि शरीर की उत्पत्ति माता-पिता के संयोग से होती है, मैं भी मानता हूं। उत्पत्ति, जन्म और मृत्यु मैं भी मानता हूं। मैं भी मानता हूं कि स्वर्ग-नरक जैसे सुख-दुख मनुष्यों को यहां पर भी हैं। सही कहते हो तुम कि खाओ-पीओ। शरीर है तो यह सब होगा परन्तु यह भी मानो कि यदि यही करते रहोगे, इन्द्रिय-विषयों का भोग भोगते रहोगे तो उस हेतु मनुष्य-मनुष्य, समूह समूह में छीनाझपटी, संघर्ष-क्लेश, युद्ध-महायुद्ध होंगे और वर्तमान भी दुखी और मानो कि घोर कर्मों के फल भोगने हेतु तिर्यंच-नरक गति, अति पुण्य भोगने हेतु स्वर्ग भी है। गोशालक को महावीर कहते हैं-जैसा नियत है वही होगा या नहीं होगा, सत्य है, तुम सत्य कहते हो, मैं मानता हूं, नियति में तय है। पर भैया! मानो कि वह नियति मैंने ही पूर्व समय, पूर्व भव, पूर्व भवों में शुभ भाव या अशुभ भाव करके तय की। पुण्य या पाप कर्म बांधे, वह फल नियत है, मैंने जैसा नियत किया, वैसा शुभ या अशुभ फल होगा। देखो भाई! आगे एक और विशेष बात है - मैंने पूर्व में अज्ञान के अंधेरे में, मिथ्या मान्यता से, मिथ्या मोह (क्रोध, राग, रति आदि) करके जो मेरी कर्म-नियति मैंने तय कर ली, अब जब वह उदय में आकर फल देगी तो अब मैं मनुष्य भव में हूं, बुद्धि तेज है, ज्ञानी की वाणी सुन समझ-पक्की कर ली है अब मैं उस अनुकूल फल में, प्रतिकूल फल में, नियत कर्म के अनुसार सुखी-दुखी नहीं होऊंगा और आत्मलीन हो उसे निष्फल कर मुक्त हो जाऊंगा। नियति को निष्फल करने की शक्ति मुझमें है। यह कैसी अमूल्य वाणी है !! तुलना कर पहचानो । अनेकान्त दर्शन-किसी भी वस्तु, द्रव्य में अनन्त गुण या धर्म या गुणधर्म हैं। किसी एक गुणधर्म को पकड़कर, उसी को सत्य, अन्य को असत्य मानना हठाग्रह-मताग्रह है। अनन्त गुणधर्मों को प्रकट करने हेतु अनन्त पक्ष, अनन्त नय (कथन शैली) हैं। जैसे आत्मा निर्मल, निर्विकारी, परम शुद्ध है। परमार्थ से, 23

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