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समय परीक्षक प्रसन्न मुद्रा में था फिर किसी क्लेश में क्लेशित हो जांचने बैठा, यह विचार भी आया, निर्देश, ध्यान में आया, अधिक प्रतिशत में उत्तीर्ण नहीं करना है, दूसरा अनुत्तीर्ण हो गया। दो व्यापारी एक साथ, एक जैसा पुरुषार्थ कर रहे थे, एक कमाता-दूसरा गंवाता है। नियतिवादी दार्शनिक कहेंगे-ऐसा ही होना था। वयप्राप्त बुजुर्गों को आरामदायक वाहन में, स्वयं नौजवान दुसरे वाहन में-अदला-बदली की। थोड़ी देर बाद बुजुर्गों की कार आगे निकल गई, नौजवानों का वाहन बम-विस्फोट से भस्म, सभी भस्म हो गए। बुजुर्ग दुखी-आर्त्त-रो रहे थे, हमें वैसा नहीं करना था। अरे भाईयों! ऐसा ही नियति में तय था, तुम सबका बचना लिखा था, उनका मरना लिखा था। भाग्यवादी-विधातावादी-ईश्वरवादी अपने-अपने श्रद्धा पुरुषों को मानेंगे, ईश्वर को ऐसा ही मंजूर था, उसके आगे किसी की नहीं चलती। भाग्य में जो होना होता है, वही होता है। विधाता माता ने लेखे ऐसे ही लिखे थे।
नियतिवादी कहेंगे, देखो, ईश्वर को क्या पड़ी कि किसी को उत्तीर्ण करे, किसी को अनुत्तीर्ण, किसी को लाभ दे, किसी की हानि कर दे, किसी को बचाए, किसी को मार डाले। देखो, भाग्य या विधाता भी कुछ नहीं करते। देखो-पुरुषार्थ भी एकसा किया-कोई कुछ कारगर नहीं होता, सब वही होता है जो नियति में तय
है।
नियति किसने तय की? इस दर्शन को मानने वाले गोशालक हैं। एक अद्दष्य शक्ति, तीसरी कोई शक्ति है, वहीं से, वही सब जीवों की नियति तय करती है, वैसा ही होता है, या नहीं होता है। अतः दुखी मत हो, मस्त रहो, मंजूर कर लो।
महावीर भी नियति को मानते हैं-बड़ा विचित्र है, महावीर ने किसी भी दार्शनिक को नहीं कहा कि तुम असत्य कहते हो या मिथ्या मानते हो। सांख्यमती को महावीर कहते हैं-तुम आत्मा को नित्य-शाश्वत-निर्मल-निर्विकारी मानते हो, सत्य है, मैं भी ऐसा ही मानता हूं परन्तु देखो भाई! ये विकार, क्रोध आदि जड़ प्रकृति में नहीं होते, दिखता है स्पष्ट, ये भी आत्मा ही करता है। करता है तो जन्म-मरण से दुखी, न करे, सहज स्वभाव में रहे तो मुक्त है। मोक्ष है।
ईश्वरवादियों को कहा-तुम सत्य कहते हो। सर्वशक्ति सम्पन्न ईश्वर या परमात्मा है। मैं भी मानता हूं पर वह परम आत्मतत्व, वह परम वैभव, वह परम ज्ञान-दर्शन की अमित शक्ति, अनन्त सुख इस आत्मा में ही है। मैं भी ऐसे परमेश्वर को मानता हूं। आत्मा ही परमशुद्ध आत्मा हो, परमात्मा हो जाता है।
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