Book Title: Jainattva Kya Hai
Author(s): Udaymuni
Publisher: Kalpvruksha

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Page 20
________________ मोहादि का विपरीत परिणाम करता है। यह गुणों में उत्पाद-व्यय, उसी द्रव्य में होता है। ऐसा मानो। महावीर के प्रथम गणधर, सभी गणधर, शिष्यों सहित सांख्यमत मानते थे। द्रव्य की ध्रुवता (शुद्ध निर्मल-निर्विकारी) के स्थान पर वर्तमान में रागादि विकार भी आत्मा में होते हैं (मुझमें होते हैं। ऐसी जरासी भूल सुधरी कि संयम लेकर वस्तुतः जैसा आत्मा का स्वभाव है, वैसे परम शुद्ध परमात्मा हो गए। (3) बौद्ध दर्शन-उत्पाद-व्यय माना पर द्रव्य की ध्रवता नहीं मानी-गौतम बुद्ध इसके प्रणेता हैं। प्रमुख मानने वाले हैं। वे आत्मा को मानते हैं परन्तु वह नित्य, शाश्वत, सदाकाल स्थायी ध्रुव है ऐसा नहीं मानते। देखें-सांख्यमती ध्रुवता मानते हैं परन्तु उत्पाद-व्यय नहीं मानते। गौतम बुद्ध उत्पाद-व्यय मानते हैं, जन्म-मरण मानते हैं, कर्म, कर्मफल मानते हैं पर वे किसी ध्रुव तत्व-द्रव्य में होते हैं, ऐसा नहीं मानते हैं। वे मानते हैं कि चित्त था अतः उत्पन्न हुआ। आत्म-सन्तति है पर नित्य आत्मा नहीं है। पूर्व सन्तति अपने उस भव के समस्त शुभ या अशुभ संस्कार, नई सन्तति को देकर नष्ट हो जाती है। नई सन्तति, पूर्व सन्तति नहीं है। है भी, क्योंकि उसी के समस्त संग्रहित-संचित संस्कार (विकार, कर्म) इस नई सन्तति में हैं। गौतम बुद्ध मध्यमार्गी थे। आत्मा-परमात्मा-सृष्टि की आदि, अन्त, संचालक है या नहीं, इन प्रश्नों पर उत्तर नहीं दिए। उन्हें वेदान्तियों द्वारा मान्य सर्वान्तरयामी ईश्वर परमात्मा या सब कुछ जानने वाला कोई ध्रुव आत्मा है, यह भी मान्य नहीं था और चार्वाकवादियों का उच्छेदवाद भी मान्य नहीं था। चार्वाकवादी मानते थे कि प्रत्येक आत्मा शरीर के साथ ही जन्म लेती है, शरीर के नाश होते ही वह भी नष्ट हो जाती है, सर्वथा उच्छेद यह नहीं जंचा। दोनों मान्य नहीं थे। आत्मा शाश्वत भी नहीं है, सर्वथा नष्ट होना भी नहीं माना उसे कहा-अशाश्वतानच्छेदवाद। वे मानते थे कि कर्म है, कर्मफल (विपाक) भी है। सुख-दुख है। जन्म-मरण है परन्तु वे सब किसी ध्रुव द्रव्य में होते हैं, उस ध्रुव आत्मा को नहीं मानते उत्पाद-व्यय माना। ध्रुवता नहीं मानी। नई सन्तति का जन्म (उत्पाद) तभी पूर्व सन्तति का नाश, व्यय तो माना पर जिसमें यह उत्पाद-व्यय निरन्तर हो रहा है, महावीर कहते हैं, उस ध्रुव आत्मद्रव्य को भी मानो। महावीर ने माना-अनन्त आत्माएं, प्रत्येक समान आत्मिक गुणों से युक्त स्वतंत्र-पृथक अस्तित्व वाली आत्मा है। अपने कर्म से मैं मनुष्य गति (या भव) में हूं। 4184

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