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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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जिनमंदिर व जिनमूर्ति को द्वेष व अज्ञानवश उड़ा दिया । इस विषय में
स्थानकवासी संत श्री विजयमुनि शास्त्री
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अमरभारती (दिसम्बर १९७८, पृ. १४) में लिखते हैं कि
* "बड़े खेद की बात है कि - हमारे कुछ मुनियों ने हमें जिनमंदिर व जिनमूर्तियों से दूर क्यों रखा ?"
ऐसे अनेक स्थानकवासी सन्तों ने जिनप्रतिमा - जिनमंदिर- तीर्थों के विरह की व्यथा स्वीकार की है, किन्तु तीर्थंकरों के शाश्वत वचनों में संदेह रखने वाले धर्मप्राण (?) लोंकाशाह के अनुचित मार्ग को स्वीकार करने के बोझ में दबे हैं । स्थानकमार्गी संतो ने आगमशास्त्रों के शब्द व अर्थ के साथ खिलवाड किया है, उल्टे-सुल्टे अर्थ किये है- इस विषय में वे आगे लिखते हैं कि
* पूज्य श्री घासीलालजी म. ने अनेक आगमों के पाठों में परिवर्तन किया है । तथा अनेकस्थलों पर नये पाठ बनाकर जोड़ दिये हैं । इसी प्रकार पुष्कभिक्खुजी म. ने अपने द्वारा संपादित सुत्तागमे में अनेक स्थलों से पाठ निकालकर नये जोड़ दिये हैं । बहुत पहले गणि उदयचन्दजी महाराज 'पंजाबी' के शिष्य रत्नमुनि ने भी दशवैकालिक आदि में सांप्रदायिक अभिनिवेश के कारण पाठ बदले हैं ।
स्थानकमार्गी संत चाहे श्री अमोलक ऋषि हों, या श्री घासीलालजी हों, या श्री. चौथमलजी हो या आचार्य श्री हस्तीमलजी हों या आ. जेठमलजी हो, या आचार्य श्री नानालालजी हों या आचार्य मधुकरजी हों या श्री पारसमुनि हों या आगमदिवाकर हो ....
या स्थानकमार्गी पंडित चाहे श्री रतनलालजी डोशी हों, या वकील श्री नेमिचंदजी बांठियाँ हो, या चाहे श्री घीसुलालजी पित्तलिया हों, या चाहे श्री जीतमलजी बाफना हो, या चाहे श्री मांगीलालजी चंडालिया हों या चाहे श्री मानमलजी चोरडिया हों
सभी के सभी असत्यवादी, अप्रमाणिक, पक्षपाती व अज्ञान - मिथ्यात्व
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