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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा श्रद्धा का नाश करके-दूसरों को जैनधर्म में अश्रद्धा कराने वाला मिथ्यात्व को बढावा देता है।
जैसे सुविहित संयमी पू. आ. श्री हरिभद्रसूरिजी म. ने जिनमंदिर व जिनमूर्ति का प्रबल समर्थन किया है, वे मंदिरमार्ग के कट्टर आग्रही थे । उन्होंने जो विरोध किया था, वह चैत्यवास का किया था, यानि जैन साधु मंदिर में नहीं रह सकते इसका विरोध किया था । जब कि डोशीजीने समझा कि- आ. श्री. हरिभद्र सू.म.ने जिनमंदिर और जिनमूर्ति का विरोध किया था, पर यह गलत है।
यद्यपि-आज अधिकांश स्थानकवासी संत जैसे अपने गुरु के गुरुमंदिर और गुरुमूर्ति का निर्माण करवाते है, इसी प्रकार वे जिनमंदिर और जिनमूर्ति की भी आवश्यकता समझने लगे हैं ।
इसके प्रमाण है (१) गोंडल (सौराष्ट्र-गुजरात) संप्रदाय के आचार्य रतिलालजी म. के शिष्य नम्रमुनि ने घाटकोपर (मुंबई) में-पारसधामबनवाया है, जहाँ श्री उवसग्गहरं स्तोत्र का पाठ भक्तजन करते हैं, वैसे ही मुंबई (कांदीवली) में भी दूसरा मंदिर बना है।
___ (२) जयपुर-श्यामनगर में - आ. श्री जैनदिवाकर चौथमलजी म. की १३२ वीं जन्म जयंति के उपलक्ष्य में श्री देवेन्द्रमुनि व श्री रुपमुनिजी ने भव्य जिनालय बनवाया है, और इसमें श्री अवंतिपार्श्वनाथ आदि तीन भगवान की मूर्तियों को उन्होंने बिराजमान किया है। ____ यानि स्थानकवाले भी अभी जिनमंदिर व जिनमूर्ति की आदरणीयता का स्वीकार करते है।
इसलिए अब स्थानकवासी बिरादर को जिनमंदिर व जिनमूर्ति का प्रेमश्रद्धा-भक्ति पूर्वक आदर करना - स्वीकारना चाहिए और मोक्षमार्ग की ओर अग्रेसर होना चाहिए, ऐसी हमारी विनंती है।
- भूषण शाह चन्द्रोदय परिवार
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