Book Title: Jain Tattvavidya Author(s): Tulsi Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 16
________________ १४ / जैनतत्त्वविद्या वाला तो पुद्गल भी हो सकता है, पर वह त्रस नहीं होता । कोई-कोई स्थावर जीव भी गतिशील हो सकता है। इसलिए जो चलता-फिरता है, वह त्रस है, यह परिभाषा पर्याप्त नहीं है । जो जीव सुख पाने के लिए और दुःख से निवृत्त होने के लिए एक I स्थान से दूसरे स्थान में गमनागमन कर सकते हैं, वे त्रस हैं। जिन जीवों में सलक्ष्य गमनागमन की क्षमता नहीं होती, वे स्थावर कहलाते हैं । वास्तव में तो त्रस नाम कर्म की प्रकृति के उदय के कारण जीव त्रस कहलाते हैं और स्थावर नाम कर्म की प्रकृति के उदय के कारण जीव स्थावर कहलाते हैं । दो, तीन, चार और पांच इन्द्रिय वाले सभी जीव त्रस हैं। एक इन्द्रिय वाले जीव- पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीव स्थावर हैं । त्रस और स्थावर - इस वर्ग में संसार के समस्त प्राणियों का समावेश हो जाता है । सूक्ष्म- बादर इसके बाद सूक्ष्म और बादर जीवों का एक वर्ग है । बादर का अर्थ है स्थूल । इसमें एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर पांच इन्द्रिय वाले जीवों तक सभी जीव आ जाते हैं । केन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकार के होते हैं। पृथ्वी, पानी आदि स्थावरों के जो जीव दृश्य हैं, वे बादर हैं और जो आंखों के विषय नहीं हैं, वे सूक्ष्म हैं। ऐसे सूक्ष्म जीव समूचे लोक में व्याप्त हैं । आगम की भाषा में - 'सुहुमा सव्वलोयम्मि लोयदेसम्मि बायरा' - सूक्ष्म जीव समग्र लोक में रहते हैं और बादर जीव लोक के एक भाग में रहते हैं । त्रस-स्थावर या सूक्ष्म- बादर जीवों को जिस रूप में परिभाषित किया गया है, वह उनकी व्यावहारिक परिभाषा है । वास्तविक परिभाषा नाम-कर्म के योग से बनती है । नाम-कर्म की अनेक प्रकृतियां हैं । त्रस नाम, स्थावर नाम, सूक्ष्म नाम और बादर नाम प्रकृतियों का उदय जिन जीवों के होता है, वे क्रमश: त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर कहलाते हैं । जीवों के इस संसार को समझे बिना अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। इसलिए इसको गहराई से समझना जरूरी है । पर्याप्त अपर्याप्त जीव के दो-दो प्रकार करने से जो पांच वर्ग बनते हैं, उनमें अन्तिम वर्ग है पर्याप्त और अपर्याप्त का । अन्य वर्गों की भांति इस वर्ग में भी विश्व के सारे प्राणी समा जाते हैं । समग्र संसार में जितनी जीव-जातियां हैं, वे या तो पर्याप्त होंगी या अपर्याप्त होंगी। तीसरा कोई विकल्प बाकी नहीं रहता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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