Book Title: Jain Tattvadarsha
Author(s): Vijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Atmaram Jain Gyanshala
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नवम परिच्छेद.
( ४६५ ) पात्र त्रण तरेहनां कथन करेल. १ उत्तम पात्र साधु, २ मध्यम पात्र श्रावक, ३ विरति सम्यग्रह ष्टि जघन्यपात्र, १ अनादर, २ कालविलंब, ३ विमुख, ४ असत्य बोल, २ दान दइ पश्चात्ताप, या पांच सत् दाननां कलंक वे. १ श्रानंदनां श्रसु आववां, 2 रोमांचित थ, ३ बहुमान देनुं, ४ मिष्टाषण, ५ दानदीधा पढी अनुमोदना, या पांच सुपात्र दाननां भूषण बे. सुपात्रदाननुं परिग्रहपरिमाण करवानुं फल रत्नसार कुमारनी जेम थाय बे. या कथा श्राद्ध विधिग्रंथथी जाणवी. ते कारणथी एवा साधुनो संयोग मलवाथी सुपात्रदान दिन प्रतिदिन विवेकवान् अवश्य करे.
जोजन श्रवसरें साधर्मी बंधु कोइ याव्या होय तो पोतानी साथे यथा शक्ति जोजन करावे; कारण के ते पण पात्र बे. आंधला बुला प्रमुख मागनाराने पण यथायोग्य यापे, कोइ मागनारने निराश जवादे नहि. धर्मनी निंदा न करावे, कठण अंतःकरण न करे. जोजनने अवसरें दयावंतें बारणाबंध न करवां जोइये, तेमांपण धनवानें तो अवश्य द्वार खुल्लां राखवां जोइये ॥ श्रागमेऽप्युक्तं ॥ नेव दारं पिहावेश, गुंजमाणो सुसाव ॥ णुकंपा जिणंदे हिं, सङ्घाणं न निवारिया ॥ १ ॥ दिद्दू पाणिनिवहं, जीमे जवसायरंमि दुखतं ॥ श्रविसेस अणुकंप, डुदावि सामछ कुण ॥२॥ श्रर्थः- जोजनावसरें दरवाजा बंध करे नहिं. जिनेश्वर जगवानें श्रावकने अनुकंपादान करवानी मना करी नथी. जीवोना समूहने जयानक संसारमां दुःखपीडित देखीने तेउना उपर विशेषरहित अव्य तेमज जावथी अनुकंपा करे. द्रव्यथी यथायोग्य अन्नादि च्यापे, जावी तेने सन्मार्गमां प्रवर्त्तावे. श्री पंचमांग प्रमुखमां ज्यां श्रावकोनुं वर्णन करेल बे, त्यांच्या प्रमाणे पाठ डे " अवगुंठि अडवारा " या विशेषण ध्यानमा राखी निक्षुकादिने व्यापवावास्ते निरंतर द्वार उघाडां राखे. संवत्सरीदान प्रापी तीर्थंकर महाराजाउयें पण दीन प्राणीजनो उद्धार करेल . कदापि काल पड़े तो श्रावकोयें तो विशेष रीतें दीननो उद्धार करवो. पूर्वे विक्रमसंवत् १३१५ मां प्रेसर गामनिवासी श्रीमाल ज्ञातिशाद जगडु श्रावकें ११२ एकसो बार दानशाला बंधावी दान थापेल
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