Book Title: Jain Tattvadarsha
Author(s): Vijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Atmaram Jain Gyanshala

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Page 337
________________ एकादश परिच्छेद, ( ५२३) वशश्री जैनमत धारण करी वेदोनी निंदा करी होय तोपण शुं जाणीये? या कथानो आज तात्पर्य लोकोये लखेलो बे. 9 रावणे नारदजीने पुब्धुं के यवो पापकारी पशुवधात्मक यज्ञ क्यांश्री प्रचलित थयो ? नारदजीये कयुं के शुक्तिमती नदीना किनारा उपर शुक्तिमती नामे नगरी बे. वीशमा श्रीमुनिसुव्रत स्खामि हरिवंश तीकरनी लादमां केटलायेक राजा व्यतीत यर गया पढी अनिचंद्र नामा राजा थयो. तेनो वसु नामनो पुत्र, महाबुद्धिवान, सत्यवादी जगमां प्रसिद्ध थयो. तेज नगरीमां की रकदंबक नामना उपाध्याय रहेता हता. तेने पर्वत नामनो पुत्र इतो. ते कीरकदंबक उपाध्यायनी पासे वसुराजा, उपाध्यायजीनो पुत्र पर्वत ने हुं नारद त्रणे जणा अन्यास करता हता. एकदा श्रमो त्रणे शिष्यो अन्यासना श्रमश्री रात्रिना वेहेला सुइ गया हता, उपाध्यायजी ते वखते जागता हता. श्रमो उपरना जागमां सुता हता, ते वखते वे ज्ञानवान् चारण साधु व्याकाशमां परस्पर वातो करता चाल्या जता दता, तेर्ड बोल्या के या उपाध्यायजीना बे शिष्यो नर्कमां जशे अने एक स्वर्गमां जशे मुनियोतुं या प्रमाणे बोल सांजली उपाध्यायजी विचार करवा लाग्या के ज्यारे मारा शिखवेला शिष्यो नर्कमा जाय, त्यारे तेना करतां वधारे दुःखजनक बीजु शुं ? परंतु त्रणमां नर्कमां कोण जशे अने खर्गमां कोण जशे ? ते वातनो निर्णय करवा वास्ते त्रणेने एक साथे बोलाव्या. पती गुरुये श्रमने दरेकने एकेक लोटनो कुकडो श्राप्यो, अनेकयुं के कुकडाने एवी जगाये ज‍ मारो के ज्यां को देखतुं न होय. पढी वसु छाने पर्वत बने जणा तो शून्य जगामां ज दरेक पोतपोताना कुकडाने मारी लाव्या, अने हुंतो ते लोटना कुकडाने लइ नगरीनी बहार बहुज दूर चाल्यो गयो. ज्यां कोइ नहोतुं त्यां जइ उनो रह्यो. चारे तरफ जोवा लाग्यो, छाने मनमां या प्रमाणे तर्क थवा लाग्या. गुरु महाराजे तो आज्ञा करी बे के, हे वत्स ! कुकडाने तुं त्यां मारजे, के ज्यां कोइ तने देखतुं न होय ! प्रथम तो या कुकडाने हुंज देखुं हुं, वली कुकडो मने देखे बे, खेचर देखे बे, लोकपाल देखे बे; ज्ञानी देखे बे, एवं तो जगत्मां कोइ पण स्थान नयी, ज्यां कोइ पण न देखतुं होय. ते कारणथी गुरुनो अभिप्राय

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