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द्वादश परिच्छेद.
(एयए) दूरथीज श्री जगवंतने चोत्रीश अतिशय संयुक्त, तथा इंद्रो देवो अने मनुष्योथी परिवृत दीठा. देखतांज बोलवानी शक्ति मंद थर गइ. जगवंतनी सन्मुख जतांज, श्री भगवंते तेमने बोलाव्या. हे गौतम इंडनति ! तमे याव्या ? गौतमजीए मनमां विचार्यु के, मारुं नाम पण या जाणे बे; परंतु तेमां शुं आश्चर्य ? जगत्मां प्रसिद्ध एवा मने कोण जातुं नथी? मारुं नाम लेवाथी हुं कांइ तेने सर्वज्ञ मानुं नहि; परंतु मारा मननां जे संशय बे, ते संशय जो ते दूर करे तो हुं तेने सर्वज्ञ मानुं. तकाल जगवंते कं हे गौतम ? तमारा मनमां था संशय बे- जीव बे के नहि ? अने ते संशय तमने वेदोनी परस्पर विरुद्ध श्रुतियोथी थयेल . ते श्रुतियो कहीये बीये.
“ विज्ञान घन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीत्यादि ” तेनाथी विरुद्ध, या श्रुति बे, " सवै श्रयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि " या श्रुतियोनो अर्थ तमारा मनमां जेम जासन याय बे, महुं तमने कहुं हुं ते सांजलो. प्रथम श्रुतिनो अर्थ तमे या प्रमाणे करो बो- नीलादि रूप होवाथी विज्ञानज चैतन्य बे, विशिष्ट जे नीलादि तेथ जे घन ते विज्ञानघन, ते विज्ञानघन या प्रत्यक्ष परिविद्यमान रूप पृथ्वी, छाप, तेज, वायु, आकाश, या पांचे भूतोथी उत्पन्न यह फरी तेनी साथेज नाश थर जाय बे, श्रर्थात् भूतोनो नाश थवाथी, तेनी साथे विज्ञानघननो पण नाश घर जाय बे, ते कारणथी प्रेत्य संज्ञा नथी, अर्थात मरण पढी फरी परलोक गमन, नर, नारकादि जन्म यतो नथी. श्रा श्रुतिथी जीवनी नास्ति श्रर्थात् तेनो अभाव सिद्ध थाय छे. दवे बीजी श्रुति कड़े बे के - श्रा श्रात्मा ज्ञानमय अर्थात् ज्ञान स्वरूप बे, इत्यादि. तेथ श्रात्मानी सिद्धि थाय बे. या बंने श्रुतियो परस्पर विरोधी होवाथी sis निश्वय र शकतो नथी. वली बीजा पण श्रात्माना स्वरुपमां परस्पर विरोधी मत बे. कोइ कढे बे के, यतः ॥ एतावानेव पुरुषो, यावा निंप्रियगोचरः ॥ जड़े वृकपदं पश्य, यद्रवदत्यवदुश्रुताः ॥ १ ॥ वली बीजा मतवाला कहे बे के यतः ॥ " न रूपं निक्षवः पुलः " श्रर्थात् श्रात्मा
मूर्त. वली एक श्रागम एवं कहे बे के यतः ॥ “ श्रकर्त्ता निर्गुणो जोक्ता आत्मा" अर्थात् कर्त्ता, सत्व, रज, तम या त्रण गुणोथी रहित सुख
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