Book Title: Jain Tattvadarsha
Author(s): Vijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Atmaram Jain Gyanshala
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________________ छादश परिवेद. () शा वास्ते तोडे ? तथा पांच महाव्रत रूप रोपा , तेने मरोड नहि. मनरूप पुष्पोथी निरंजन जिनराजने पूज; वनथी वन शुं जम्या करे बे? राजसेवादि बूरा नीरस फल शुं प्राप्त करे ले ? गुरुना उपदेशश्री सिद्धसेनजी शिदा पाम्या. राजाने पुढी गुरु साथै अन्यत्र विहार करी गया, अने निबिड चारित्र पालवा लाग्या, अनेक श्राचार्योधी पूर्वोतुं ज्ञान प्राप्त कयु. वृद्धवादिनो वर्गवास थयो. बाद एकदा सिझसेनजीए सर्व संघ एकगे करी कडं के मारो विचार सर्व आगमोने संस्कृत नाषामां करी देवानो थयो बे, श्री संघे कद्यु, शुं तीर्थंकर, गणधर संस्कृत जाणता न होता? तेए अर्ध मागधी भाषामां आगमो शा वास्ते कां ? aa प्रमाणे कहेवाथी आपने पारांचिक नामर्नु प्रायश्चित्त श्रावे , श्राप पोते विचारी व्यो ? अमे आपने शुं कहीए ? सिद्धसेने विचार करी कयु के हुँ मौन धरी बार वर्षतुं पारांचिक प्रायश्चित्त लइ गुप्त रीते मुखव स्त्रिका, रजोहरणादि लिंग राखी, अवधूत रूप धारण करी फरीश. एम बोली गानो त्याग करी नगरादिमां पर्यटन करवा लाग्या. बार वर्ष व्यतीत थये उजायन नगरीमां महाकालना मंदिरमां शेफालिका पुष्पोथी रंगेला वस्त्र पेहेरी सिझसेन आवी बेग. नमस्कार करता नथी, तेथी पूजारी प्रमुख लोकोए कडं के तमे महादेवने नमस्कार केम करता नथी ? सिझसेन बोलताज नथी, एम लोकपरंपराथी श्रवण करतां विक्रमादित्य पण त्यां आव्या, अने का “दीर लिलिदो निदो किमिति त्वया देवो न वंद्यते" सिझसेनजीए का है राजन् ! मारा नमस्कारथी तमारा देवनुं लिंग फाटी जशे, पनी तमोने बहुज कुःख थशे, ते कारणथी हुँ नमस्कार करतो नथी. राजाए का, लिंग फाटे तो फाटवा द्यो, परंतु तमे नमस्कार करो. तत्काल सिद्धसेन पद्मासने बेसी कहेवा लाग्या, सांजलो! पडी प्रथम छात्रिंशिकाथी देवनुं स्तवन करवा लाग्या, यथा // खयंजुवं चूतसहस्त्रनेत्र, मनेक मेकाक्षर जावलिंगं ॥श्रव्यक्त मव्याहत विश्वलोक, मनादि मध्यांतम पुण्य पापं // 1 // इत्यादि प्रथमज श्लोक बोलवायी लिंगमाथी धुमाडा निकलवा लाग्या, एटले लोको बोलवा लाग्या के शिवजीतुं त्रीजुं नेत्र खुल्युं बे. हमणांज आ जिनुकने नेत्रना अग्निश्री जश्म करी देशे. तत्काल विज

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