Book Title: Jain Tattvadarsha
Author(s): Vijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Atmaram Jain Gyanshala
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(४६) जैनतत्त्वादर्श. चमां तीक्ष्ण जोजन करे, अने पाबल कडवं जोजन करे. उक्तं च ॥ स. स्निग्धमधुरैः पूर्व, मश्नीयादन्वितं रसैः ॥ व्याम्ललवणैर्मध्ये, पर्यंते कटुतिक्तकैः ॥
जो प्रथम नरम वस्तु खाय, मध्यमां कटु वस्तु खाय अंतमा फरीनरम वस्तु खाय तो बलवंत तथा नीरोगी थाय जे. जोजननी पेहेलां पाणी पीये तो अग्निमंद थ जाय , नोजननी वचमां पीये तो रसायन स- . मान गुणकारी थाय बे, अने नोजननी अंते विषसमान थाय . नोजननी अनंतर सर्व रसथी लिंपेला हाथश्री एक अंजली रोज पीये, पशुनी जेम पाणी पीये नहि, पाणी पीधा पनी बाकी रहेढुं फेंकी दे, अंजलीथी पाणी पीये नहि, पाणी थोडं पीवं पथ्य . पाणीथी जीजेला हाथ गलाउपर, कपोलउपर तथा नेत्र उपर लगाडे नहि. जोजन कर्या पठी अं. गमईन, दिशागमन, बोज उगववानुं काम, बेसी रेहेवू तथा स्नान, ए. टलां काम करे नहि; लोजन कर्या पड़ी केटलो एक वखत बेसी रेहेवामां आवे तो पेट मोटें थजाय बे. मुख खुवं राखी चता सुवे तो बल वधे बे, डावे पडखे सुवे तो आयु वधे , नोजन करी दोडे तो मरण थवानो संजव ; जोजन कर्या पनी डावे पडखे बे घडीसुधी सुवे, परंतु निझा लहे नहि, अथवा सुवे नहि तो सो डगलां चाले. बीजे स्थलेपण कडंडे के देवने, साधुने, नगरना खामि राजाने अने खजनोने ज्यारे कष्ट श्रावे त्यारे तथा चंड, सूर्यना ग्रहण वखते विवेकवान् पुरुष, शक्ति होय तो जोजन न करे; तेवीज रीतें “ अजीर्णप्रजवारोगाः ” तेथी श्रजीर्णमां पण जोजन करे नहि.
ज्वरनी श्रादिमां लांघण श्रेष्ठ , परंतु वायुज्वर, श्रमज्वर, क्रोध ज्वर, शोकज्वर, कामज्वर, घावज्वर, एटला ज्वरने वर्जिने बाकीना ज्वरमां तथा नेत्ररोगमां लांघण करे,
देवगुरु वंदनना अयोगमां, तथा तीर्थ अने गुरुने नमस्कार करवाजती वखत, विशेषधर्मर्नु तथा पुण्यनुं काम आरंजतां अने अष्टमी, चतुदशी श्रादि विशेष पर्वने दिवसे लोजन न कर जोश्ये. तपश्चर्या श्रा लोक अने परलोकमां बहुज हितकारी , तथा गुणकारी जे. जोजन कर्या पली नवकार मंत्र गणी उठे. चैत्यवंदन करी, देवगुरुने यथायोग्यवं

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