Book Title: Jain Tattvadarsha
Author(s): Vijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Atmaram Jain Gyanshala

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Page 333
________________ एकादश परिछेद. () जैनधर्म प्रगट थयो. ते लगवाननो धर्म केटलाएक ब्राह्मणाजासोये न अंगीकार कर्यो. स्वकपोलकल्पित मतनोज कदाग्रह राख्यो. साधुऊनो वेष करवा लाग्या. चारे वेदोनां नामो बदलावी नाख्यां, श्रने ते वेदोमां मतलब पण काश्नी कां लखी दीधी. हवे चारे वेदोनी उत्पत्ति लखीये बीये. ज्यारे नरत राजाये ब्राह्मणोनी पूजा करी, त्यारे बीजा लोको पण ब्राह्मणोने अनेक तरेहनां दान थापवा लाग्या. ते प्रसंगे श्रीजरतचक्रवर्तीये श्रीरीषनदेव नगवानना उपदेश अनुसार ब्राह्मणोने निरंतर खाध्याय करवावास्ते श्रीश्रादीश्वर (रीषजदेव) जगवाननी स्तुति तथा श्रावकधर्मखरूपगर्जित चार आर्यवेदनी रचना करी. तेना नाम. १ संसार दर्शनवेद २ संस्थापन परामर्शनवेद, ३ तत्त्वावबोध वेद, ४ विद्याप्रबोध वेद, चारे वेदोमां सर्वनयसंयुक्त वस्तु स्वरूप कथन ते ब्राह्मणोने शिखववामां आव्यु. पुर्वोक्त चार वेद तथा ब्राह्मणो श्रापमा तीर्थंकर सुधी यथार्थ प्रवर्तता रह्या. आठमा तीर्थकरनुं तीर्थ व्यवछेद थतां ब्राह्मणोये घ्रष्ट थर धनना लोजथी ते वेदोमां जीवहिंसा दाखल करी. चारे वेद उलट पालट करी नांख्या. जैनधर्मनुं नाम चारे वेदमांथी काढी नाख्युं, एटबुंज नहीं पण अन्योक्तिथी “दैत्य दस्यु वेदबाह्य" इत्यादि नामोथी साधुनी निंदार्जित १ रुग्, ५ यजुर, ३ साम, ४ अथर्व, या चार नामना वेद कल्पवामां श्राव्या. जे ब्राह्मणोये तीर्थंकरोनो उपदेश अंगीकार कर्यो, तेउये पूर्व वेदोना मंत्रोनो त्याग को नहीं. ते मंत्रो आजसुधी दक्षिणमा कर्णाटकदेशमा जैन ब्राह्मणोने कंठस्थ . ते प्रमाणे अमे देख्युं बे तथा सांजव्यु जे. अमारी पासे पण प्राचीन वेदोना केटलाएक मंत्रो. यतः॥ सिरि जरह चक्कवट्टी, आयरिय वेयाणविस्सुउप्पत्ती ॥ माहणपढणथमिणं, कहियं सुहककाण विवहारं ॥ १॥ जीणति वुचिन्ने, मिबत्ते माहणेहिंतेविया॥अस्संज्याण पूश्रा, अप्पाणं काहिया तेहिं ॥२॥ इत्यादि. हवे वेदोनीरचना हिंसा संयुक्त, याज्ञवल्क्य, सुलसा, पिप्पलाद अनेपर्वत प्रमुखोये केवी रीते रची तेनुं पण कांश्क स्वरूप लखीये बीये. बृहदारण्यक उपनिषद्नी नाष्यमां लख्यु डे के, यहोनुं कथन करनार यज्ञवल्क्य तेना पुत्र याज्ञवल्क्य बे. ते कडेवाथी एम प्रतीत थाय ने के

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