Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 7
________________ यात्मनिवेदन स्वतन्त्र योजना की गई है। साथ ही निश्चय उपादानको मानकर भी जो महाशय यह बाक्षेप करते हैं कि 'निश्चय उपादानको भूमिकामें द्रव्यके पहुंचने पर भी यदि बाल अनुकूल सामग्री नहीं मिलती है तो विविक्षता कार्य नहीं हो सकता है।' सो उनका यह आक्षेप कैसे मागम बाह्य है यह सिद्ध करनेके लिए भी इस अध्यावकी स्वतन्त्र योजना की पांचवें अध्यायका नाम 'उभयनिमित्त मीमांसा' है। सो इस अध्यायको स्वतन्त्र रखनेका कारण भी स्पष्ट है। बात यह है कि जो महाशय 'निश्चय उपादानके अनुसार प्रत्येक द्रव्यके कार्यरूपमें परिणत होते समय उसके अनुकूल बाह्य सामग्रीका योग नियमसे बनता ही है।' इस तथ्यको नहीं मानते उन्हे आगमसे इस तथ्यको हृदयंगम कराना मुख्य प्रयोजन समझकर इस अध्यायकी स्वतन्त्र योजना की गई है। शेष अध्याय पिछले संस्करणके अनुसार ही रखे गये हैं। इतना अवश्य ही ध्यान रखा गया है कि उन अध्यायोंमे प्ररूपित विषयोंके सम्बन्धमें अबतक जो अन्यथा प्ररूपणाऐं दृष्टिगोचर हुई, इन अध्यायोंमें युक्ति और आगमपूर्वक उनके सम्यक् प्रकारसे निरसनकी भी व्यवस्था की गई है। ऐसा एक भी विषय नहीं है जिसपर जिनागममें प्रकाश न डाला गया हो। मात्र उन सब विषयोंको संकलित करके पाठकोंके सामने रखनेकी आवश्यकता थी उसे इस ग्रन्थ द्वारा पूरा करनेका प्रयत्न किया गया है। इसमे हमारा अपना कुछ भी नहीं है। जिनागमसे जो विषय अवलोकनमें आये उन्हें ही यहाँ ग्रन्थरूपी मालामें पिरोया गया है। वह भी इसलिये किया गया है कि मोक्षमार्गमें तत्त्वस्पर्श के समय इन सब तथ्योंको हृदययम कर लेना आवश्यक है। अन्यथा स्वरूपविपर्यास, कारणविपर्यास और भेदाभेदविपर्यास बना ही रहता है, जिससे अनेक शास्त्रोमें पारंगत होकर प्रांजल वक्ता बन जानेपर भी इस जीवकी मोक्षमार्गमें गति होना सम्भव नहीं है । देखो, जो मोक्षमार्गपर आरूढ़ होना चाहता है उसे यह सर्व प्रथम समझना चाहिये कि यह ग्रन्थ पर मत खण्डनकी दृष्टिसे नहीं संकलित किया गया है। इसमें जिन तथ्योको संकलित किया गया है वे जेनसत्त्व मीमांसाके प्राणस्वरूप हैं, इसलिये परमत खण्डनमें जहां प्रायः व्यबहारनयकी मुख्यता रहती है वहाँ इसमें परमार्थ प्ररूपणाको मुख्यता दी गई है और साथ ही उसका व्यवहार भी दिखलाया गया है।

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