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जैन सुबोध गुटका।
को ॥ ४॥ कुलक्षणी कहे पति मरे कद, विनती कर भग-' वान को। गुरु प्रसादे चौथमल कहे, वह नारी जा नके स्थान को॥ ५॥
४६ सीता प्रण. (तर्ज-ना छेड़ो गाली दूगारे भरवादो मोए नीर) ..
मैं दिलोजान से कहतीरे, स्वप्ने में वंछुनाय । मैं सांची सांची बोलुंरे, पर नरने बंछु नाय ॥ टेर ॥ इस महेन्द्र बाग के माई, दिया अगनी कुण्ड रचाई । खड़े राम लछमण भाइरे ॥ १ ॥ कर स्नान वो सीता माई, अग्नि के कुण्ड पर आई । सब सुनजो लोग लुगाई रे ॥ २॥ प्रभु छोड़ी मुझको वन में, सब रहगई मनकी मन में । अब कौन सुने विपिन में रे ॥३॥ मेरे शिर पर कलंक चढाया,पाप्यों ने दोष लगाया। क्या हाथ में उनके आयारे ॥ ४ ॥ है उज्ज्वल मेरी सारी, कोई दाग न लगा लगारी । है रवि शशी साख तुम्हारी रे ॥ ५ ॥ जो नहीं हो दोप लंगारा, मिट अगनी हो जल सारा | सती कूद पड़ी उस वारारे ॥६॥ फूलों की वृष्टि वरसावे, सत धर्म वहां प्रकटावे । यूं चौथमल दरसावरे ॥ ७ ॥
४७ काल से सावधान.
तर्ज पनजी मुंडे बोल . "माथे गाजेरे या फौज काल की, ध्यान में लाजेरे ॥टेर । पूर्व पुण्यं से पाई संपदा, खाई. मतिः खुटांजरे ।